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प्राप्त किया था। इस काल में मगध प्रदेश में जैनधर्म से सम्बद्ध कोई विशेष घटना नहीं हुई। वैसे उसका प्रचार-प्रसार बढ़ता ही रहा।
सातवाहन काल (६० ई.पू. २२५ई. तक)
मौर्य वंश के पतन के बाद अनेक राजवंश खड़े हो गये । सातवाहन उनमें एक था। इसका अस्तित्व ई. पू. प्रथम शती से ई. सन् तृतीय शती के आसपास तक रहा । जैनाचार्य सर्ववर्मा द्वारा लिखित कातन्त्र व्याकरण तथा काणभिक्षु द्वारा लिखित कथा के आधार पर लिखी गई गुणाढ्य की वृहत्कथा की रचना इसी के राज्यकाल में हुई। इस समय मथुरा और सौराष्ट्र भी जैनधर्म के केन्द्र थे। मथुरा पार्श्वनाथ का जन्मस्थान है।' यापनीय संघ के अधिष्ठाता शिवार्य की साहित्य-साधना भी संभवतः यहीं से प्रारंभ हुई होगी। मथुरा के कंकाली टीले के उत्खनन से पता चलता है कि यह नगर लगभग दशवीं शताब्दी तक जैन केन्द्र रहा है। यहां की खुदाई में जो स्तूप मिला है उसे महावीर से भी पूर्वकालीन होने की संभावना प्रगट की गई है। पञ्चस्तूपान्वय का प्रारंभ भी यहीं से हुआ। इसी काल में सौराष्ट्र में महिमानगरी में एक जैन सम्मेलन भी बुलाया गया। पुष्पदन्त और भूतबली ने षट्खण्डागम की रचना भी इसी काल में की। मथुरा के रत्नजटित स्तूप के होने का भी उल्लेख मिलता है।' इस काल में प्राकृत जैन साहित्य का सृजन बहुत हुआ। दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदायों के रूप में जैन सम्प्रदाय का विभाजन भी संभवतः इसी काल का परिणाम है।
कुषाण और कुषाणोत्तर काल :
__इसके बाद कुषाणकाल (प्रथम शताब्दी ई. पू. से द्वितीय शताब्दी तक) में भी जैनधर्म फलता-फूलता रहा। गान्धारकला और मथुराकला इसी समय की देन है। जिनका उपयोग जैनमूर्ति कला के क्षेत्र में बहुत किया गया। कुषाणों के बाद (लगभग चतुर्थ शती तक) के उत्तरी भारत में यौधेय मद्र, मालव, नाग, वाकाटक आदि जातियों के गणराज्य अस्तित्व में आये। इन गणराज्यों में भी जैन संस्कृति अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती रही। उज्जैन, मथुरा, अहिच्छत्र आदि नगरियां जैनधर्म के प्रभाव में थी। उज्जैन के कालकाचार्य (द्वितीय), मथुरा का जैनस्तूप और अर्धफलक सम्प्रदाय तथा यापनीय संघ, नागराजाओं की
१. विविधि तीर्वकल्प, पृ. ६९. २. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. ३४. ३. व्यवहार भाष्य, ५.२७.