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धर्म, अधर्म और संस्कार इन नव विशेष गुणों का अत्यन्त उच्छेद हो जाता है और आत्मा अपने शुद्ध रूप में लीन हो जाता है। यही मोक्ष है। जैन दर्शन इन बुद्धपादि गुणों का उच्छेद नहीं मानता। ये गुण आत्मा से न तो सर्वथा भिन्न कहे जा सकते हैं और न सर्वथा अभिन्न, बल्कि कथञ्चित् भिन्न और कञ्चित् अभिन्न होते हैं। सन्तानी से अत्यन्त भिन्न सन्तान उपलब्ध ही नहीं हो सकती। सन्तान का तात्पर्य है-कार्य-कारण भूत क्षणों का प्रवाह । यह कार्य-कारण भाव न तो सर्वथा नित्यवाद में हो सकता है और न सर्वथा अनित्यवाद में। और फिर यदि मोक्ष में अतीन्द्रिय ज्ञान, सुख आदि गुणों का अभाव माना जायगा तो उसे प्राप्त करेगा कौन? सुख तो आत्मा का निजी स्वभाव है। उसे मोक्ष की स्थिति में परम सुख कहा जाता है। अतः नैयायिक - वैशेषिक का उपर्युक्त कथन सही नहीं है।
सांख्यदर्शन में पुरुष को शुद्ध चैतन्यस्वरूपी माना गया है पर वह अकर्ता और साक्षात् भोक्ता नहीं। प्रकृति में प्रतिबिम्बित सुखादि फलों को मोहवशात् वह अपना मानता है। यही धारणा संसार का कारण है। प्रकृति का संसर्ग छूट जाने पर पुरुष अपने शुद्ध स्वरूप में- चैतन्यमात्र में अवस्थित हो जाता है यही स्वरूपावस्थिति मोक्ष है। जैनदर्शन प्रकृति और पुरुष के इस स्वरूप को स्वीकार नहीं करता। ज्ञान बुद्धि का धर्म है जो सांख्यदर्शन में प्रकृति के साथ ही मुक्त पुरुष से दूर हो जाता है। अर्थात् मुक्त पुरुष बुद्धि के नष्ट हो जाने से अज्ञानी बन जाता है। इस अज्ञान अवस्था को मोक्ष कैसे कहा जा हकता है ? और फिर विवेक ख्याति (भेदविज्ञान) पुरुषको होती है या प्रकृति को? प्रकृति ज्ञान से शून्य है अतः उसे विवेकख्याति युक्त माना नहीं जा सकता। पुरुष भी विवेकख्याति शून्य है क्योंकि वह भी अमवेद्यपर्व में स्थित होने से अज्ञानी है। अज्ञानी को मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता है ? मोक्ष तो सम्यग्ज्ञानी और सम्यक्चारित्री को ही प्राप्त हो सकता है। रत्नत्रय के बिना मोक्ष कैसे?
मीमांसक जीव आदि के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भी मोक्ष का अभाव बतलाते हैं। तत्त्वसंसिद्धि में मोक्ष सद्भाव नहीं माना गया। महर्षि जैमिनिने भी मोक्ष की चर्चा नहीं की पर कुमारिल भट्ट लीक से हटकर मोक्ष की बात करते हैं। यशस्तिलक चम्पू (भाग-२, पृ. २६९) में कहा गया है कि कोयले एवं कज्जल की भांति स्वभावसे भी मलिन मन की वृत्ति किसी भी कारण शुद्ध नहीं हो सकती, यह जैमिनियों-मीमांसकों का मत है। जैन दर्शन इसे स्वीकार नहीं करता। वह अनुमान से ही मोक्ष को सिद्ध करता है। सर्वज्ञता की भी सिद्धि अनुमान से ही होती है। समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर यह अवस्थाप्रगट होती है।