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प्रचलित नहीं थी, मात्र देवी-देवताओं के भावात्मक रूप का चित्रण ही वहां मिलता था । उत्तर काल में जैन संस्कृति की अहिंसा और आत्म साधना से वैदिक संस्कृति प्रभावित हुई फलतः वहां भी मूर्तिपूजा प्रारम्भ हो गई। डॉ. वसिष्ठ नारायण सिन्हा का यह निष्कर्ष भ्रान्तिपूर्ण है कि जैनधर्म का सम्बन्ध सिन्धु-सभ्यता से तो है परन्तु समकालीनता का नहीं बल्कि बाद का है । क्योंकि इसके पूर्व वे स्वयं काणे को उद्धृत कर यह स्वीकार कर चुके हैं कि मूर्तिपूजा सिन्धु-सभ्यता की देन है जिसे सम्भवतः सर्वप्रथम जैनधर्म ने अपनाया फिर वैदिक धर्म में भी इसका प्रचार हुआ। वैविक साहित्य और जैनधर्म :
वैदिक सभ्यता की जानकारी वेदों पर विशेष रूप से अवलम्बित है। साधारणतः वेद, विशेषतः ऋग्वेद, को लगभग २००० ई. पू. का मानते हैं। उससे पता चलता है कि वैदिक आर्यों का संघर्ष किसी यज्ञ विरोधी-संस्कृति के समुदाय से हुआ जिसे वहां दास और दस्यु की सज्ञा से अभिहित किया गया । बाद में उनके बीच सौजन्य स्थापित हुआ। यह संघर्ष और सौजन्य ऋषभदेव को माननेवाली जैन संस्कृति के साथ हुआ होगा। यही कारण है कि ऋग्वेद में ऋषभ की स्तुति की गई है ।
बातरराना भमण :
ऋग्वेद में वातरशना मुनियों और श्रमणों की साधना का चित्रण मिलता है जिसका सम्बन्ध विशेषतः जैनमुनि परम्परा से रहा है
मुनयो वातरशनाः पिशङ्गाः वसते मला । वातस्यानु घ्राजि यन्ति यद्दवासो अविक्षत ।।२।। उन्मदिता मोने यंन वातां मातस्थिमा वयम् । शरीरादेस्माकं यूयं मर्तासो अभि पस्सथ ॥३॥
अर्थात् अतीन्द्रियार्थी वातरशना मुनि मल धारण करते है जिससे वे पिंगल वर्णवाले दिखाई देते हैं। जब वे वायु की गति को प्राणोपासमा द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक देते हैं, तब वे अपने तप की महिमा से वीप्तिमान्
1. Kane, P. V; History of Dharmashastra, Vol. II, Pt. II. P. 712. २. जैनधर्म की प्राचीनता, श्रमण, मई १९६९, पृ. ३२ ३. ऋग्वेद, १०, १३६, २-३ : तैत्तिरीय आरण्यक, १.२३.२.१, २४.४. २. ७.१ पैविक
कोष, प.७३,