________________
सभ्यता तत्कालीन विद्याधर किंवा द्रविड जाति से सम्बद्ध रही हो । यह जाति ऋषभदेव (जैन धर्म के आदि तीर्थङ्कर) को पूज्य मानती थी और उन्हें योगी के रूप में स्वीकार करती थी । लोहानीपुर एवं हडप्पा से प्राप्त विशाल काय की एक दिगम्बर मूर्ति मात्र धड़, कायोत्सर्ग अवस्था में खड़ी है ।" उसकी आकृति और भाव ऋषभदेव की आकृति और भाव से शत्-प्रतिशत् मिलते हैं । रामचन्द्रन् और काशी प्रसाद जायसवाल जैसे प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता उस मूर्ति को किसी जैन तीर्थङ्कर की मूर्ति के रूप में स्वीकार करते हैं ।" इसी प्रकार की कुछ योगी मूर्तियों का और भी चित्रण वहां की मुद्राओं में हुआ है जिनपर ऋषभ का चित्र बना है । इससे पता चलता है कि सिन्धु सभ्यता काल में आदिनाथ ऋषभदेव और उनका चिन्ह ऋषभ लोकप्रिय रहा होगा । मुद्राओं में अंकित लिपि अभी तक एकमत से अवाच्य रही है फिर भी प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार ने वहां की एक मुद्रा में "जिन इइ सरह" (जिनेश्वर ) पढ़ा है । ऋग्वेद ( ७.२१.५ ) में इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि शिश्नदेव हमारे यज्ञ में बाधक न बने । यें शिश्नदेव अवैदिक होना चाहिए, यह स्पष्ट हैं । उनका सम्बन्ध शिश्नयुक्त माननेवाले अवैदिक श्रमण जैनों से रहा प्रतीत होता है । अत: यह अधिक संभव है की सिन्धु सभ्यता वैदिक सभ्यता की विरोधी द्रविड सभ्यता थी । डॉ. हेरास और प्रो. श्रीकण्ठ शास्त्री जैसे सर्वमान्य विद्वानों ने इस सभ्यता को द्राविडी अर्थात् जैन सभ्यता ही स्वीकार किया है ।
योग साधना का सीधा सम्बन्ध अध्यात्म से है । ऋग्वेद में यद्यपि 'योग' शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है पर वहां उसका अर्थ प्रायः जोड़ना अथवा मिलाना है । आध्यात्मिक साधना से उसका कोई सम्बन्ध नहीं । यह ठीक भी है क्योंकि वैदिक संस्कृति आध्यात्मिक संस्कृति न होकर आधि दैविक अथवा आधिभौतिक विचार प्रधान संस्कृति है । इसलिए वैदिक परम्परा में योग साधना का कोई विशेष सम्बन्ध नहीं । उसका सम्बन्ध तो प्रारम्भ से ही श्रमण परम्परा से रहा है जिसमें आत्मसंयम और तप के द्वारा निर्वाण प्राप्ति को साध्य स्वीकार किया गया है । इसलिए हमारा यह विचार और भी सुदृढ़ हो जाता है कि सिन्धुसभ्यता में प्राप्त योगीश्वर मूर्तियां जैन मूर्तियां ही हैं । यहां यह भी दृष्टव्य है कि वैदिक संस्कृति के प्रारम्भिक भाग में मूर्तिपूजा
1. The Vedic Age, General editor-R. C. Majumdar.Plate VI- Statuary Red Stone Statue, Harappa.
२. अहिंसावाणी में उद्धृत, अप्रेल - मई, १९५७. पू. ५४-५६. ३. भारतीय इतिहास: एक दृष्टि, पू० २८