________________
२४-२८. अन्य मूलगुण :
शरीर से निर्ममत्व बढ़ाने के लिए तथा इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम की रक्षा के लिए साधु को स्नान करना वर्जित है। इसे 'अस्नानता' कहते हैं। स्वच्छ और निर्जीव पृथ्वी अथवा शिलातल पर ही मुनि को सोने का विधान है। वह गद्दे का उपयोग नहीं कर सकता। इसे 'भूशयन' कहते हैं। निर्जीव और शुद्ध पृथ्वी पर निरालम्बन खड़े होकर अपने दोनों हाथों से भोजन करना 'स्थितिभोजन' कहलाता है। इस क्रिया में मुनि थाली में से और बैठकर भोजन ग्रहण नहीं कर सकता। मुनि का भोजन मात्र जीने के लिए होता है। उसे उससे कोई राग नहीं होता। स्थितिभोजन के पीछे मुनि की यह प्रतिज्ञा होती है कि जबतक उस के दोनों हाथ मिले हैं और उसमें खड़े होकर भोजन करने की शक्ति है तबतक वह भोजन करेगा अन्यथा आहार को छोड़ देगा। शरीर के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने के लिए ही वह दातीन भी नहीं करता। वह 'अदन्तधावन' व्रत का पालन करता है। इसी प्रकार दिन में एकबार भोजनकर 'एकभुक्तवत' का भी वह पालन करता है। मुनि भोजन इसलिए करता है कि उसका शरीर धर्मसाधना के लिए आवश्यक शक्ति केन्द्रित कर सके । इसके लिए दिन में एक बार भोजन पर्याप्त होता है।' स्थविरकल्पी परम्परा में साधारणतः इनका विधान अथवा परिपालन नही किया जाता। बराधर्म:
___ मुनि त्रिगुप्तियों का पालन करता है जिससे प्रवृत्तियों का निरोध है जाता है। प्रवृत्तियों के सम्यक् निरोध के लिए समितियों का संयोजन किया गय है और उनमें दृढ़ता लाने के लिए दशधर्मों का उपयोग जीवन में आवश्यक बताय गया है। दशधर्म ये हैं- उत्तम क्षमा (ताड़न-पीड़न आदि मिलने पर भी मन कलुषता का न होना), उत्तम मार्दव (अभिमान न होना), उत्तम आर्जव (सरलता) उत्तम-शीच (लोभ न होना), उत्तम सत्य (सत्य और साधु वचन बोलना) उत्तमसंयम (इन्द्रिय-निग्रह करना), उत्तम तप (शुद्ध तप), उत्तम त्या (परिग्रह की निवृत्ति), उत्तम आकिञ्चन्य (यह मेरा है इस प्रकार का भार त्यागना) और उत्तम ब्रह्मचर्य (अतीत विषयों का स्मरण आदि भी छोड़ देन तथा आत्मचिन्तन में लग जाना)।
इन धर्मों का अन्तर्भाव गुप्ति और समितियों के अन्तर्गत हो जाता फिरभी चूंकि उनमें संवर को धारण करने का सामर्थ्य रहता है इसलिए उनक
१. उपासकाध्ययन, १३३-४.