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संयम का प्रतीक होता है। उत्तराध्ययन में इसे कायक्लेश सपके अन्तर्गत रखा मया है। अदीनता, निष्परिग्रहता, वैराग्य और परीषह की दृष्टि से मुनियों को केशलञ्चन करना आवश्यक बताया है।'
२३. अचेलकता :
दिगम्बर परम्परा में मुनि को निर्वस्त्र रहना आवश्यक है अन्यथा उसके नैष्किञ्चन्य तथा अहिंसा कैसे संभव है ? वस्त्र परिग्रह का प्रतीक है और परिग्रह कभी मुक्ति का कारण हो नहीं सकता । अतः बचेलता को अट्ठाईस मूलगुणों में रखा गया है । भ. महावीर को इसी अचेलता के कारण निगण्ट नातपुत्त कहा गया है। वस्त्र न होने से त्याग, आकिञ्चन्य, संयम आदि गुण प्रगट होते हैं । असत्य भाषण का कारण समाप्त हो जाता है। लापव गुण प्राप्त हो जाता है। रागादिक भाव दूर हो जाते हैं और इन्द्रियविजय क्षमादिकभाव, मानसिक निर्मलता, निर्भयता आदि गुण स्वतः अभिव्यक्त हो जाते हैं। ठाणांग, आचारांग आदि में भी इसी प्रकार अचेलकता के अनेक गुणों का वर्णन मिलता है। जैसे हाथी को उन्मार्ग में जाने से रोकने के लिए अंकुश आवश्यक हो जाता है वैसे हो इन्द्रिय विषय भोंगों से रोकने के लिए परिग्रह-स्याम अपेक्षित है।
परन्तु श्वेताम्बर परम्परा में अचेलकता का सन्मान करते हुए भी निर्वस्त्र होना आवश्यक नहीं बताया। यह उत्तरकालीन चिन्तन और परिस्थितिजन्य विकास का परिणाम है। वहाँ मुखवस्त्रिका, साधारण कोटि के वस्त्र (अवमचेलए) और पादकम्बल (पादत्रोंछन अथवा पात्र और कम्बल) रखने का विधान मिलता है। इनके अतिरिक्त रजोहरण (नुच्छक), पात्र, पीठ, फलक, मय्या और संस्तारक जैसे उपकरणों को भी साथ रखा जाता है। वर्तमान में स्थविरकल्पी साधुके लिए १४ उपकरणों को रखने की छूट दी गई है-पात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रप्रमानिका, पटल, रजस्वाण, मुच्छक, दो चादरें, अनीवस्त्र (कम्बल), रजोहरण, मुखबस्त्रिका, मानक (पात्र विशष), वीर चोलपट्टक (लंगोटी)।
१. उत्तराध्ययन, २२. १०; नेमचन्द वृत्ति, पृ. ३४१, प्रवचनसार, ३.८९ २. उपासकाध्ययन, १३५ ३. भगवती मारापना, २१, वि.पृ. ६१०-१%, उपासकाध्ययन, १११-१३२. ४. उत्तराध्यवन, २६. २१-२३ ५. जैन साहित्य का इतिहास :पूर्वपीठिका, पृ. ४२४