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इन पांचों समितियों का पालन करने से मुनि षट्कायिक (पृथ्वी, आप, तेज, वाय, वनस्पति और प्रस) जीवों की हिंसा से बच जाता है तथा संसार में रहता हुमा. भी पापों से लिप्त नहीं हो पाता।' ११.१५ पञ्चेन्द्रिय विजयता :
साधु को स्पर्श, रसना, घाण, चक्षु और स्रोत्र इन पांचों इन्द्रियों के विषयों की लालसा नहीं करनी चाहिए। इन्द्रियों और कषायों के वश में रहना वाला साधु निश्चित ही अपने संयम से भ्रष्ट हो जाता है। उसका दर्शन, ज्ञान और चारित्र निरर्थक हो जाता है। इन्द्रिय संयमी होना साधु का प्रधान लक्षण है अन्यथा वह संयम और आचार से पतित हो जाता है।
१६-२१ षडावश्यक :
___ समता अथवा चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक होते है जिनका पालन करना साधु का परम कर्तव्य है।' समता अथवा सामायिक साधु का कवच है। निर्ममत्व होकर वह राग, देष, मोह, आदि विकारभावों से दूर हो जाता है। फलतः लाभ-अलाम में, सुखदुःख में, शत्रु-मित्र में, काच-काञ्चन मे वह समता भावी होता है। सभी प्रकार की पापात्मक प्रवृत्तियों से वह दूर हो जाता है। तीर्थकरों के गुणों की स्तुति करना स्तवन' आवश्यक है। उनकी वन्दना करना 'वन्दना' आवश्यक है। स्तुति और वन्दना से तीर्थकरों के गुणों का चिन्तन होता है जिससे मुक्ति का मार्ग सरल हो जाता है। स्वकृत अपराधों की स्वीकृति पूर्वक उनका शोधन करना प्रतिक्रमण है। 'प्रतिक्रमण' का तात्पर्य होता है पीछे हटना। किसी दोष के हो जाने पर साधु आत्मनिन्दा पूर्वक उस दोष को निःसंकोच स्वीकारता है और पुनः विशुद्ध चरित्र धारण कर लेता है। 'प्रत्याख्यान' का अर्थ है-परित्याग करना। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि के आश्रय से भविष्यकाल के लिए अयोग्य द्रव्यादि का मन-वचन-काय से परित्याग करना प्रत्याख्यान है। तथा पंच परमेष्ठियों का खड्गासन अथवा पद्मासन से बैठकर स्मरण करना 'कायोसर्ग है। इसमें शरीर से बिलकुल ममत्व छोड़ दिया जाता है। निश्चल होकर वह आत्मलीन हो जाता है।
'कायोत्सर्ग' का तात्पर्य है निर्ममत्व और निश्चलता पूर्वक शरीर का उत्सर्ग (त्याग) करना । यह क्रिया इन्द्रियों के अशक्त हो जानेपर श्रावक और मुनि,
१. भगवती माराधना, ११९४-९५; उत्तराध्ययन, २४.४-१५ २. उत्तराध्ययन, २९.८-१३.