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२९६ द्वेषादि का अभाव हो जाता है और रागद्वेषादि का अभाव हो जाने से संसरण से मुक्त होने का पथ प्रशस्त हो जाता है।'
____ इन पंचमहाव्रतों का निरतिचार पूर्वक परिपालन अनन्त ज्ञानादि गुणों की सिद्धि में मूल कारण होता है। शिवार्य ने उनकी रक्षा के निमित्त रात्रिभोजन का त्याग और 'अष्टप्रवचन मातृका' का धारण करना आवश्यक बताया है। प्रवचन का अर्थ है परमागम अथवा आप्तवचन । आप्तवचन को समझने तथा तदनुसार आचरण करने के लिए परिणाम के संयोग से पांच समितियों और त्रिगुप्तियों में न्याय रूप प्रवृत्ति होना नितान्त अपेक्षित है। उसे चारित्र के आठ भेद भी कहते हैं। ये मनिके ज्ञान-दर्शन चारित्र की सदैव उस प्रकार रक्षा करते हैं जिस प्रकार पुत्र का हित करने में तत्पर माता अपायों से उसको बचाती है। इसलिए इनको 'प्रवचन मातृका' कहा जाता है।
६-१० पञ्चसमितियां :
समिति का तात्पर्य है सम्यक् प्रवृत्ति । आध्यात्मिक क्षेत्र में इसका अर्थ है-अनन्त ज्ञानादि स्वभावी आत्मा में लीन होना, उसका चिन्तन करना आदि रूप से परिणमन होना समिति है। सच्चा मुनि समिति के पालन करने में अन्तर्मुखी हो जाता है। वह मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति का पालन करता है। इन त्रिगुप्तियोंसे तथा ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग, इन पांच समितियों से उपर्युक्त पंच महाव्रतों की रक्षा होती है।
दिन में मार्ग के प्रासुक हो जाने पर चार हाथ आगे की भूमिको शोधकर चलना 'ईर्यासमिति' है। वचन चार प्रकार का होता है-सत्य, असत्य, उभय और अनुभय । असत्य और उभयवचनों का त्याग करना तथा सत्य और अनुभय करनेवालो वचनों को यथानुसार विशुद्ध बोलना 'भाषा समिति है। इसमें साधु भेद उत्पन्न करनेवाली पैशून्य, परुष, प्रहासोक्ति से रहित, हित, मित और असंदिग्ध भाषा बोलता है। उद्गम, उत्पादन आदि आहार सम्बन्धी छयालीस दोषों से रहित प्रासुक अन्नादि का ग्रहण स्वाध्याय और ध्यान की सिद्धि के लिए करना 'एषणा' समिति है। ज्ञान के उपकरण शास्त्रादिकों का तथा संयम के उपकरण पीछी, कमण्डल आदिको यल पूर्वक उठाना और रखना 'आदाननिक्षेपण' समिति है। और जीव रहित भूमि पर मल-मूत्रादि विसर्जित करना प्रतिष्ठापना' अथवा 'उत्सर्ग समिति है।
१. नियमसार, ६०; प्रवचनसार, ३. १५. २. भगवती माराधना, १२०५; उत्तराध्ययन २४१-३. ३. उत्तपध्ययन, २४-२६.