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मूलगुणों का पालन करके अपने सम्यक्चारित्र को सुदृढ़ बनाता है। मूलाचार (दशम प्रकरण) में मुनि के लिए चार प्रकार का लिङ्गकल्प बताया गया हैअचेलकत्व, लोंच, व्युत्सृषशरीरता और प्रतिलेखन ।
अट्ठाईस मूलगुण महाव्रत :
__ अणुव्रतों का पालक श्रावक होता है और महाव्रतों का पालक मुनि । अतः मुनि भी उन्हीं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पांचों व्रतों का परिपालक होता है परन्तु सकलरूप से, एकदेश से नहीं। हिंसाके दो क्षेत्र होते हैं-जीव और अजीव। जीव के क्षेत्र में प्रमादी व्यक्ति तीन प्रकार से हिंसा करता है-- अपघात करने का प्रयत्न करना (संरम्भ), अपघात करने में कारण जुटाना (समारम्भ) और अपघात करने का आरम्भ करना (आरम्भ)। ये तीनों कारण मन-वचन-काय से, कृत-कारित अनुमोदना से और क्रोध मानमाया-लोभ से १०८ (३४३४३४४) प्रकार का हो जाता है। अजीवाधिकरण के चार भेद होते हैं-- निक्षेप, निवर्तना, संयोजना और निसर्ग। मुनि इन सभी प्रकारों से षट्कायिक जीवों की विराधना से बचने का प्रयत्न करता है। अर्थात् जीवों की सभी प्रकार से रक्षा करना अहिंसा महावत है। अहिंसा:
जैनधर्म भावप्रधान धर्म है । विराधना में सबसे बड़ा कारण होता है प्रमाद और कषाय । प्रमादी साधु अथवा साधक के चलने में जीवों की हिंसा न होने पर भी उसे हिंसा का बन्ध होता है जबकि संयमी साधु की गमनक्रिया में जीव-हिंसा होने पर भी वह कर्मबन्ध का कारण नहीं होती क्योंकि हिंसा करने के उसके भाव नहीं रहते।' सर्वार्थसिद्धि (१.१३) में उद्धृत निम्न गाथा का यही तात्पर्य है।
मरदु जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा।
पयदस्स गत्थि बंधो हिंसामित्तेण समिदस्स ।। सत्य :
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा किये बिना ही वस्तु के सत्-असत् आदि पक्षों को अस्वीकार नहीं करना सत्य महाव्रत है। सत्यमहाव्रतधारी मुनि १. मूलाचार, २८९; सूचकतांग के नियास्थान नामक अध्ययन में हिंसा के तेरह कारणों
का उल्लेख किया गया है। उत्तराव्यवन, ८.१०.