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और उसकी अनुमोदना करना), (२) तदाहृतादान (अपहत माल को खरीदना), विरुद्ध राज्यातिक्रम (राज्य परिवर्तन के समय अल्प मूल्यवान वस्तु को अधिक मूल्य की बताना), (४) हीनाधिकमानोन्मान (नांपने-तोलने के तराजू आदि में कम बांटों से देना और अधिक से दूसरे की वस्तु को खरीदना), और (५) प्रतिरूपक (कृत्रिम सोना-चांदी बनाकर या मिलाकर ठगना)। उत्तरकालीन आचार्यों ने प्रायः इन्हीं अतिचारों को स्वीकार किया है। जो मतभेद है, वह परिस्थितिजन्य है। विरुद्धराज्यातिक्रम के स्थानपर समन्तभद्रने "विलोप" और सोमदेव ने "विग्रहे संग्रहोऽर्थस्य" नाम दिया है। साधारणतः इसका अर्थ होता है-युद्ध होने पर राजकीय नियमों का अतिक्रमण कर धन का संचय करना। धरती में गढे धन को ग्रहण न करने का भी विधान किया गया है। ब्रह्मचर्याणवत :
ब्रह्मचर्याणवत को 'परदारनिवृत्ति' या 'स्वदारसन्तोषव्रत' कहा गया है।' परदारनिवृत्ति व्रत का पालन देश संयम के अभ्यास के लिए उद्यत पाक्षिक श्रावक करता है और स्वदारसन्तोषव्रत का पालन देशसंयम में अभ्यस्त नैष्ठिक श्रावक करता है। समन्तभद्र की इसी परिभाषा को उत्तरकालीन आचार्यों में किसीने आधा और किसीने पूरा लेकर प्रस्तुत किया है। अमृतचन्द्रसूरि, आशाधर आदि विद्वानों ने नैष्ठिक श्रावक को दृष्टि से तथा सोमदेव आदि विद्वानोंने पाक्षिक श्रावक की दृष्टि से ब्रह्मचर्याणुव्रत का लक्षण किया है। यह अन्तर इसलिए हुआ कि वसुनन्दि के मत से दार्शनिक श्रावक सप्तव्यसन छोड़ चुकता है और सप्त व्यसनों में परनारी और वेश्या दोनों आ जाती है। अतः जब वह आगे बढ़कर दूसरी प्रतिमा धारण करता है तो वहां ब्रह्मचर्याणुव्रत में वह स्वपत्नी के साथ भी पर्व के दिन काम, भोग आदि का त्याग करता है। परन्तु स्वामी समन्तमद्र के मत से दर्शन प्रतिमा में सप्त व्यसनों के त्याग का विधान नहीं है, अतः उनके मत से दर्शन प्रतिमाधारी जब व्रत धारण करता है तो उसका ब्रह्मचर्याणुव्रत वही है जो अन्य श्रावकाचारों में बतलाया है। पं आशाधर ने इसी प्रकार का समन्वय किया है।' हेमचन्द्र ने भी योगशास्त्र में ऐसा ही किया है। प्रायः और किसीने इस व्रत का विभाजन दो भेदों में नहीं किया। आश्चर्य है, सोमदेव ने ब्रह्मचर्यायुवती के लिए वेश्यागमन की छूट दे दी है।'
उमास्वामी ने ब्रह्मचर्याणुव्रत के पांच अतिचार बताये हैं- (१) परविवाहकरण, (२) इत्वरिका (गान-नृत्यादि करने वाली) परिग्रहीतागमन,
१. रत्नकरण्डबावकाचार, ५९. २. उपासकाध्ययन, प्रस्तावना, पृ.८१-८२. ३. उपाक्षकाध्ययन,४०५-६.