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(६) प्रत्याखनी-याचक को निषेधार्थक वचन बोलना। (७) इच्छानुकूलिका- किसी कार्य में अपनी अनुमति देना। (८) अनभिगृहीता- 'जो अच्छा लगे वह कार्य करो' रूप भाषा। (९) अभिगृहीता- 'अमुक कार्य करना चाहिए, अमुक नहीं'
एतद्रूपिणी भाषा। (१०) संदेहकारिणी-सैंधव जैसे शब्दों का प्रयोग करना जिसमें
संशय बना रहे। (११) व्याकृता-स्पष्ट अर्थ को सूचित करने वाली । (१२) अव्याकृता-अस्पष्ट अर्थ को सूचित करने वाली।
गृहस्थ इस प्रकार की असत्य-अमृषा (व्यवहार) भाषा का प्रयोग करता है परन्तु यह प्रयोग वह अपने परिणामों को विशुद्ध करने के लिए करता है। आरोग्य लाभ आदि की दृष्टि से अनेक प्रकार की प्रार्थनायें इसी निमित्त की जाती है। फिर भी व्यवहारतः उनमें दोष नहीं।
सत्याणुव्रत के पांच अतिचार है --मिश्या उपदेश देना, रहोभ्याख्यान (गुप्त बात को प्रकट करना), कूटलेखक्रिया (जाली हस्ताक्षर करना), न्यासापहार (धरोहर का अपहरण करना) और, साकारमन्त्रभेद (मुखाकृति देखकर मन की बात प्रगट करना)। आगे चलकर समन्तभद्र ने प्रथम दो अतिचारों के स्थान पर परिवाद और पैशून्य को रखा' और सोमदेव ने प्रथम तीन अतिचारों के स्थान पर परिवाद, पैशून्य और मुधासाक्षिपदोक्ति (झूठी गवाही देना) निगोजित किया।
३. अचौर्याणुव्रत :
अदत्तवस्तु का ग्रहण न करना अचौर्याणुव्रत है। इसमें सार्वजनिक जलाशय से पानी आदि का ग्रहण सीमा से बाहर है। उत्तरकालीन सभी परिभाषायें प्रायः इसी परिभाषा पर आधारित रही हैं। अतिचार भी प्रायः समान है। वे पांच है'-(१) स्तेनप्रयोग (चोरी करने का उपाय बताना
१. तत्वार्थसूत्र, ७.२६; उपासकदशांग अ. १. २. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५६. ३. उपासकाध्ययन, ३८१. ४. रत्नकरणबावकाचार, ५७; तत्त्वार्थसूत्र, ७.१५. ५. तत्वार्षसूत्र, ७-२७; उपासक दशांग, म १.