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के साप प्रथम तीनों मंगों के मेल से बनते हैं। इन सात भंगों से अधिक अंग पुनरुक्त होने के कारण अमान्य होते हैं।
बनेकान्तवाद को 'विभज्यवाद' भी कहा गया है । बुद्ध और महावीर दोनों ने अपने आप को 'विभज्यवादी' कहा है। अनेकान्तवाद के प्राचीन रूप को प्राचीन पालि-प्राकृत आगम साहित्य में देखा जा सकता है। पाश्र्वनाथ परंपरा के अनुयायी सच्चक से बुद्ध ने कहा कि तुम्हारे पूर्व और उत्तर के कपन में परस्पर व्याघात हो रहा है-न खो संगयति पुरिमेन वा पच्छिमं, पच्छिमेन का पुरिमं । बुद्ध के शिष्य चित्तगहपति और निगण्ठ नातपुत्त के बीच हुए विवाद में भी चित्तगहपति ने निगण्ठ नातपुत्त पर यही दोषारोपण किया-सचे पुरिमं सच्चं पच्छिमेन ते मिच्छा, सचे पच्छिमं सच्चं पुरिमेन ते मिच्छा।'
इससे यह पता चलता है कि भगवान महावीर ने भी भगवान पुर के समान मूलतः दो भंगों से विचार किया था-अस्थि और नत्यि। इन्हीं मंगों में स्वात्म-विरोध का दोषारोपण लगाया गया। महात्मा बुद्ध के भी मंगों में परस्पर विरोष झलक रहा है पर बुद्ध द्वारा महावीर पर लगाये गये बारोप में जो तीव्रता दिखाई देती है वह वहां नही। इसका कारण यह हो सकता है कि महावीर के विचारों में अनेकान्तिक निश्चिति थी और बुद्ध एकान्तिक निश्चय के साथ अपने सिद्धान्तों को प्रस्तुत करते थे। 'निश्चय के सूचक 'स्यात्' पद का प्रयोग यहाँ अवश्य नहीं मिलता, पर उसका प्रयोग उस समय महावीर ने किया अवश्य होगा। 'सिया' शब्द का प्रयोग 'स्यात्' अर्थ में वहां मिलता भी है। जैसा उत्तर काल में प्रायः देखा जाता है, प्रतिपक्षी दार्शनिक 'स्यात्' में निहित तथ्य की उपेक्षा करते रहे हैं। प्रसिद्ध बौदाचार्य बुरघोष ने स्वयं अनेकांतवाद को सस्सतवाद और उच्छेदवाद का समिश्रित रूप कहा है।
जो भी हो, इतना निश्चित था कि बुद्ध के समान महावीर ने भी मस्थि-नत्यि स्म में दो भंगों को ही मूलतः स्वीकार किया था। भगवतीसूत्र में भी इन्हीं दो अंगों पर विचार किया गया है। गौतम गणधर ने उन्हीं का अवलम्बन
१. मझिमनिकाय, भाग १, (रो.) पृ.२१२ २. संवृत्तनिकाय ४.१.२९८९ ..पूलपालोवाव सुत्त (मसिमनिकाय) में 'सिया' पब का प्रयोग तेवोषातु के निश्चित
बेवों के वर्ष में हुवा है। ४. मरिकम निकाय बटुकथा, भाग २. १, ८३१, दीपनिकाय बटुकवा, माल ..,