________________
६. स्यानास्ति घटस्चावक्तव्यश्च-"कञ्चित् घट नहीं है और मवक्तव्य है" यह षष्ठ भंग है। यह भंग द्वितीय और चतुर्थ भंग के सम्मिश्रण से बना है। वस्तुगत नास्तित्व ही यहां अवक्तव्य रूप से अनुबद्ध होकर विवक्षित हुवा है। नास्तित्व पर्याय की दृष्टि से है। जो वस्तुत्वेन 'सत्' है वही द्रव्यांश है तथा जो अवस्तुत्वेन 'असत्' है वही पर्यायांश है। इन दोनों की युगपत् अभंद विवक्षा में अवक्तव्य है। इस तरह मात्मा नास्ति वक्तव्य है। यह भी सकलादेश है क्योंकि विवक्षित धर्म रूप से वह अखण्ड वस्तु को प्रहण करता है।
७. स्यावस्ति-नास्ति घटश्चावक्तव्यश्च-कथञ्चित् घट है वह उमयात्मक है और अबक्तव्य है, यह सप्तम भंग है। यह भंग चार स्वरूपों से तीन अंश वाला है। किसी द्रव्यार्य विशेष की अपेक्षा 'अस्तित्व' और किसी पर्याय विशेष की अपेक्षा 'नास्तित्व' होता है तथा किसी द्रव्य-पर्याय विशेष और द्रव्य पर्याय सामान्य की युगपत् विवक्षा में वही अवक्तव्य भी हो जाता है। इस तरह मस्ति-नास्ति वक्तव्य भंग बन जाता है । यह भी सकलादेश है क्योंकि इसने विवक्षित धर्म रूप से अखण्ड वस्तु का ग्रहण किया है।' भल्गसंख्याः
इन सात भंगों में निर्दिष्ट तृतीय भंग को कुछ आचार्य चतुर्थ स्थान देत है और चतुर्थ भंग को तृतीय स्थान देते हैं। और कुन्दकुन्द, अकलंक जैसे कुछ आचार्य दोनों परम्परायें मानते हैं। परन्तु बौद्ध साहित्य में वर्णित भंगों को देखने से यह प्रतीत होता है कि 'अवक्तव्य' को चतुर्थ भंग मानने की परम्परा प्राचीनतर है। इस परम्परा को सर्वप्रथम कुन्दकुन्द ने एक ओर जहाँ स्वीकार किया' वहीं दूसरी ओर उन्होंने 'अवक्तव्य' को तृतीय भंग के रूप में मानकर अपना मतभेद भी व्यक्त किया। समन्तभद्र, अकलंक आदि आचार्यों ने कुन्दकुन्द का ही अनुकरण किया। परन्तु जिनभद्रगणि' आदि आचार्यों ने अवक्तव्य को केवल चतुर्थ स्थान देकर पञ्चास्तिकाय की परम्परा को ही मान्य ठहराया। बौद्ध साहित्य में निर्दिष्ट भंग परम्परा को देखने से भी जिनमद्रगणि क्षमाश्रमण के मन्तव्य की पुष्टि होती है।
उपर्युक्त सात भंगों में मूलतः तीन भंग ही हैं-स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादस्ति च नास्ति च । शब्दों में उपय रूपों को युगपत् व्यक्त करने की सामर्थ्य न देखकर उसे 'अवक्तव्य' कह दिया गया। शेष तीनों भंग अवक्तव्य
१. सन्मति प्रकरण, १. ३६-४० २. पम्पास्तिकाय, गावा १४ ३. विशेषावश्यक भाष्य, गापा २२३२