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माणामास :
जो प्रमाण की तरह दिखे पर वस्तुतः प्रमाण न हो वह प्रमाणाभास कहलाता है । संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि प्रमाणाभास ही है क्योंकि उनसे वस्तु का सही प्रतिभास नहीं होता । प्रमाण का लक्षण 'अविसंवादिता' उनमें दिखाई नहीं देता । संशयज्ञान अनिर्णयात्मक होता है, विपर्ययज्ञान विपरीतात्मक होता है और अनध्यवसाय अनिश्चयात्मक होता है । इनमें विपर्ययज्ञान विशेष विवाद का विषय बना । इस सन्दर्भ में प्रभाकर मतांनुयायी मीमांसकों का विवेकल्याति, चार्वाकों का अल्याति, सांख्यों का प्रसिद्धार्थस्याति, ब्रह्माद्वैतवादियों का अनिर्वचनीयार्थस्वाति, सीमान्तिक और माध्यमिकों का असत्स्याति तथा योगाचारियों का आत्मस्यातिवाद प्रसिद्ध है । प्रभावकार्य मे इन सभी वादों का खण्डन अपने न्यायकुमुदचन्द्र में किया है । प्रायाभासों की संख्या निश्चित नहीं । वे अगणित भी हो सकते हैं ।
हेत्वाभास :
प्रमाणामास के समान हेत्वाभास भी होते हैं । यहाँ लक्षण तो हेतु के समान प्रतीत होते हैं पर वस्तुतः वे हेतु होते नहीं । अतः साधन अथवा हेतु के दोषों को ही हेत्वाभास कहा जाता है ।
नैयायिक हेतु के पांच रूप मानते हैं अतः उनके अभाव में हेत्वाभास भी पाँच होते हैं-असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, कालात्यापदिष्ट और प्रकरणसम । बोद्ध 'तिरूप' मानते हैं अत: उनके अभाव में हेत्वाभास भी तीन माने गये हैंअसिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक ।' जैन दार्शनिक प्रायः एक रूप मानते हैं । अतः उनकी दृष्टि में मात्र असिद्ध ही हेत्वाभास है। साथ ही यह भी कहा गया है कि हेत्वाभास की संख्या निश्चित नहीं की जा सकती । फिर भी उन्हें हम चार प्रकारों में विभाजित कर सकते है-विरुद्ध, असिद्ध, अनैकान्तिक 'और अकिञ्चित्कर ।"
डा:
जो लक्षण दृष्टान्त के लक्षण से बहिर्भूत हों वे दृष्टान्तानास ग्रहणाएं हैं। उसमें साध्य-साधनक निर्णायक तत्व होना आवश्यक है। कृष्टान्ताना के मूलतः दो भेद हैं-साधर्म्य और वैधर्म्यं । इनके भी नव-नव जंक होते हैं । प्रान्तर
१. न्यायसार, पु. ७
२. न्यायविन्दु पृ. ३
३. न्यायविनिश्चय, २. १९५
४. वही, २. ३७० : जैनदर्शन, पु. ३९५-६.