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नैयायिकों के अनुसार मान का प्रमुख कारण सन्निकर्ष है। जबतक अर्थ का इन्द्रिय के साथ संयोग अथवा सन्निकर्ष नहीं होता तबतक उसका मान नहीं हो पाता । इन्द्रिय कारक है और कारक सन्निकृष्ट हुए बिना अपना काम नहीं करता । सन्निकर्ष छः प्रकारका माना गया है- संयोग, संयुक्त- समवाय, संयुक्त समवेत समवाय, समवाय, समवेत समवाय और विशेषण विशेष्यभाव । बाहय पदार्थ मिशः चार सन्निकर्षों से गुजरते हैं-आत्मा , मन, इनिय और वर्ष योगण प्रत्यक्ष में आत्मा और मम का ही सन्निकर्ष होता है।'
जैन दार्शनिक सभिकर्ष को वस्तु-शान कराने में साधकतम कारण नहीं मानते । उनका मुख्य तर्क यह है कि सभिकर्ष के होने पर भी शान नहीं होता। बैंसे घट के समान बाकाशादि के साथ चनु का संयोग तो होता है पर आकाश का ज्ञान नहीं होता । यदि इसमें चक्षु की योग्यता का अभाव मुख्य कारण माना जाय तो फिर 'योग्यता' को ही साधकतम क्यों न स्वीकार कर लिया पाय? वस्तुतः योग्यता को प्रमाण नहीं माना जा सकता। वह तो प्रमाण को उत्पन्न करने वाला एक तत्व है। प्रमाण तो ज्ञान ही है और ज्ञान की उत्पत्ति तभी होती है जब ज्ञाता में अर्थ-प्राधिका शक्ति होती है। अतः शान ही
इसी प्रकार चण भी अप्राप्यकारी है । यदि प्राप्यकारी होती तो बांस में लगे बंधन को भी वह देखने में समर्थ होती, किन्तु दर्पण में देखे बिना बंजन काशान नहीं हो पाता। चक्षु भारत पदार्थ को नहीं देख पाती इसलिए वह प्राप्यकारी है, यह कहना भी ठीक नाईयोंकि कांच, अभ्रक आदि से भावृत पदार्च को तो वह देखती ही है । अतः मावृत पदार्य को जो ग्रहण न कर सके बह प्राप्पकारी होता है, वह व्याप्ति नहीं मानी जा सकती । चुम्बक दूर से ही मोहे कोसींचता है। अतः समिकर्ष को यदि स्वीकार किया जाय तो सर्व का भगावनी स्वीकार करना पड़ेगा । क्योंकि समिकर्ष में पदार्थ का ज्ञान क्रमशः भोर निक्स होता है कि सर्वक्षता में बह युगपत् और बनियत अपवा असीमित
इसी प्रकार नैयायिकों का कारक साकल्यवाद, सांस्यों की इन्द्रियवृत्ति और मीमांसकों का ज्ञावृव्यापार भी जैनों की दृष्टि में प्रमाण नहीं । जैनों के समान बीड भी ज्ञान को प्रमाण मानते हैं पर उनकी दृष्टि में निर्विकल्पक
१.पापबरी, पृ.७२-७४ २. यावचरी, . १२ १.सारिका १०