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नन्वी वादि सभी जैनाचार्यों ने प्रमाण को 'स्वपरावभासक' माना है। इनमें सिरसेन ने मीमांसकों का 'बापविजित' (बापवजित)और मकलक ने धर्मकीर्ति का 'अविसंवादि' विशेषण स्वीकार किया। इन्हीं दोनों परम्परागों मे विचानन्द, हेमचन्द्र बादि की प्रमाण विषयक परम्परायें गुपी हुई हैं । ऐसी पार परम्पराबों को जैन दार्शनिक क्षेत्र में देखा जा सकता है
१. स्वपरावभासक परम्परा-सिखसेन, समन्तभद्र आदि । २. अविसंवादि परम्परा-अकलंक, माणिक्यनन्दी आदि । ३. व्यवसायात्मक परम्परा-विद्यानंद, अभयदेव आदि ।
४. सम्यगर्थनिर्णयात्मक परम्परा-हेमचन्द्र आदि । समिकर्ष :
वैदिक दार्शनिक ज्ञान को प्रमाण न मानकर जिन कारणों से शान उत्पन्न होता है उन कारणों को वे प्रमाण मानते हैं और ज्ञान को प्रमाण का फल स्वीकार करते हैं : नैयायिक सन्निकर्ष को ज्ञानप्राप्ति में साधकतम करण मानते है पर जनदर्शन उसके पक्ष में नहीं। उसके अनुसार साधकतम वही है जिसके होने पर शान हो और न होने पर शान न हो। सन्निकर्ष को साधकतम नहीं माना जा सकता क्योंकि उसके होने पर कभी ज्ञान होता है और कभी नहीं होता । जैसे घट की तरह आकाश के साथ चक्षु का संयोग होता है फिर भी आकाश का ज्ञान नहीं होता । काल, दिशा, मन आदि भी सन्निकर्ष के सहकारी कारण नहीं हो सकते क्योंकि उनके रहते हुए भी आकाश का ज्ञान नहीं होता।
नैयायिकों की दृष्टि में चक्षु ज्ञान-प्राप्ति में साधकतम करण है । जबतक पदार्थ से उसका संयोग नहीं होता तबतक ज्ञान नहीं होता। अप्रत्यक्ष वस्तु इसीलिए अज्ञात रह जाती है। इन्द्रिय कारक है और कारक दूर रहकर कार्य कर नहीं सकता। बिना स्पर्श किये पदार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता यह एक अनुभूतपय है। यह सत्रिकर्ष छ:प्रकार का होता है-संयोग,समवाय, संयूक्तसमवाय संयुक्तसमवेत समवाय, समवेत समवाय और विशेषणविशेष्यभाव । बाहप समाविका प्रत्यक्षा चार प्रकार के सत्रिकर्ष से होता है-मात्मा मन से सनिकृष्ट होता है, मन इन्दियसे बार इन्द्रिय पदार्थ से । सुखादि के प्रत्यक्ष में मनु को छोड़कर शेष तीन प्रकार का सत्रिकर्ष होता है और योगी मात्र बाबा बार मन के ही समिकर्ष से पदार्थ का ज्ञान कर मेते हैं।'
१. यावमम्बरी.