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स्वीकारते ।
प्रभाकर की दृष्टि में बाहचार्य का अस्तित्व है और उसका संवेदन होता है । वेदान्त उसे ब्रह्मरूप और नित्यरूप मानता है । यं सभी दर्शन ज्ञान को स्वप्रत्यक्ष कहते हैं अर्थात् उनके अनुसार ज्ञान स्वत: प्रत्यक्षरूप से भासित होता है । जैन भी स्वप्रकाशवादी हैं ।' सांख्य-योग और न्यायवैशेषिक' परप्रकाशवादी हैं। उनके अनुसार ज्ञान का स्वभाव प्रत्यक्ष होने का तो है पर वह स्वयं प्रत्यक्ष न होकर अपनी प्रत्यक्षता के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है । यहाँ पर प्रत्यक्षता के रूप में एकरूपता होते हुए भी पर के अर्थ में मतभेद है । न्याय-वैशेषिक पर का अर्थ 'अनुव्यवसाय' करते हैं और सांख्य-योग 'पुरुष का सहज स्वरूप चैतन्य' करते हैं । परप्रकाशवादियों में कुमारिल ही ऐसे दार्शनिक हैं जो ज्ञान को अत्यन्त परोक्ष मानते हैं और उसका तज्जन्यज्ञातता रूप लिङ्ग के द्वारा अनुमान करते हैं । "
प्रमाण की यह लक्षण - परम्परा कणाद से प्रारम्भ होती है और उसी का विकास दर्शनान्तरों में हुआ है । कणाद ने 'अदुष्टं विद्या' कहकर प्रमाण में कारण शुद्धि पर बल दिया । बाद में अक्षपाद ने 'प्रमाण' और वाचस्पतिमिश्र ने 'अर्थ' शब्द का संयोजनकर उसे विषयबोधक बनाया । प्रभाकर मतानुयायी मीमांसकों ने 'अनुभूति' को प्रमाण माना तथा कुमारिल मतानुयायी मीमांसकों ने कणाद का खण्डन करते हुए 'निर्बाधत्व' और अपूर्वार्थत्व' विशेषणों से बौद्ध परम्परा को समाहित किया ।"
बौद्ध परम्परा में दिङ्नाग ने 'संवित्ति" और धर्मकीर्ति' ने 'अविसंवादित्य' विशेषणों को जन्म दिया । अन्य बौद्ध दार्शनिकों ने अपने प्रमाण लक्षणों में किसी न किसी रूप से इन विशेषणों को नियोजित किया है ।"
जैन दार्शनिकों ने उपर्युक्त दोनों परम्पराओं को अपने ढंग से समाहित किया है । जैसा हम पीछे देख चुके हैं, समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, माणिक्य
१. प्रमाणवार्तिक, ३.३२९. २. बृहती, पू. ७४
२. मामती, पु. १६.
४. योगसूत्र, ४. १८ - १९ ।
५. कारिकावली, ५७
६. दर्शन और चिन्तन, पू. १११-११२
७. तत्रापूर्वार्थ विज्ञानं निहितं बाघवजितम् ।
अदुष्टकारणारव्यं प्रमाणं लोकसम्मतम् ।। कुमारिल
८. प्रमाणसंग्रह १.१०
९. प्रमाणवार्तिक, २-१
१०. तत्पसंग्रह, कारिका १३४४