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दृष्टि से अस्थायी है । जात्मा के साथ उसका संयोग सम्बन्ध है, अनादि सम्बन्ध नहीं। यदि वनादि सम्बन्ध होता तो उसका परित्याग नहीं होना चाहिए पा। जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध होने पर भी कर्म का परित्याग इसलिए हो जाता है कि कर्मबन्ध सन्तति की दृष्टि से अनादि होकर भी साविन्यनों है । अतः जब सम्यग्दर्शन आदि रूप से परिणमन होता है तब उनका सम्बन्ध छूट जाता है, पर मन में ऐसी बात नहीं। इसी तरह स्वासोच्छवास भी पोद्गलिक है । सुख, दुःख, जीवन और मरण भी पुद्गल के अन्तर्गत माने जाते हैं । शब्द बन्ध सौम्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उझोत भी पुद्गल के ही कार्य हैं। पुद्गल के सामान्य-विशेष स्वभावों का भी उस्लेख मिलता है । उनकी संख्या २१ बतायी गई है-अस्ति, नास्ति, नित्य, अनित्य, एक, अनेक, भेद, अभेद, भव्य, अभव्य और परम ये उसके सामान्य स्वभाव हैं। चेतन, अचेतन, मूर्त, अमूर्त, एकप्रदेश, अनेकप्रदेश, विभाव, शुख, बार और उपचरित ये उसके विशेष स्वभाव हैं।
जो अर्थ को व्यक्त करे वह शब्द है। यह शब्द दो प्रकार का होता है-भाषात्मक और अभाषात्मक । भाषात्मक शब्द के भी दो भेद हैं-अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक । अक्षरात्मक शब्दों से शास्त्र की अभिव्यक्ति होती है तथा वे दैनिक व्यवहार का कारण भी बनते हैं। अनक्षरात्मक शब्द पो इनिय मादि जीवों के होते हैं। ये प्रायोगिक और वैनसिक (स्वाभाविक) के मेव से दो प्रकार के हैं। इनके भी अनेक भेद-प्रमंद होते हैं।
स्फोटवादी मीमांसकों का मत है कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं, क्रमशः उत्पन्न होती हैं और अनन्तर क्षण में विनष्ट हो जाती है । ये स्वरूपं का बोष कराने में समर्थ नहीं। अतः उन ध्वनियों से अभिव्यक्त होनेवाला, अर्यप्रतिपादन में समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतीन्द्रिय, निरवयव, और निष्क्रिय शब्दस्फोट स्वीकार करना जाहिए । परन्तु जैन यह नहीं मानते । उनका मत है कि ध्वनि बोरें स्फोट में व्यंग्यव्यञ्जकभाव नहीं बन सकता। जिस शब्दस्फोट को व्यंग्य माना जाता है वह स्वरूपतः स्थित ही नहीं। अस्थित मानने पर न तो वह व्यंग्य हो सकता है और न ध्वनियाँ व्यंजक, किन्तु ध्वनियों से स्वरूपलाम करने के कारण उसे कार्य मानना होगा । ध्वनियां यदि स्फोट की व्यञ्जक होती. तो
१. बालापपति, ४; पहायचक्र, गापा ७० की टीका. . .१.लालतिकाप. २.. '