________________
४. अन्य भारतीय भाषाओं का जैन साहित्य तमिलन साहित्य :
ई.पू. की शताब्दियों में दक्षिण भारत में जैनधर्म के पैर काफी मजबूत हो चुके थे। उसकी स्थिति का प्रमाण तमिल भाषा के प्राचीन साहित्य में खोजा जा सकता है । तोलकाटिपयम् तमिलभाषा का सर्वाधिक प्राचीन व्याकरण ग्रंथ है जिसे किसी जैन विद्वान ने लिखा था । कुरल काव्य तमिल भाषा में लिखे नीति ग्रंथों का अग्रणी रहा होगा । इसके रचयिता आचार्य कुन्दकुन्द अपरनाम एलाचार्य माने जाते हैं । एक अन्य जैन ग्रंथ नालडियार का नाम भी उल्लेखनीय है जो नीति ग्रंथों में महत्त्वपूर्ण है ।
तमिल साहित्य में पांच महाकाव्य है-शिलप्पदिकारम, वलयापनि, चिन्तामणि, कुण्डलकेशि और मणिमेखले । इनमें से प्रथम तीन जैन लेखकों की कृतियाँ हैं और अंतिम दो बौद्ध लेखकों की देन है । नरिबिरुत्तम भी संसार की दशा का चित्रण करने वाला एक उत्तम जैन काव्य है । इन वृहत् काव्यों के अतिरिक्त पांच लघुकाव्य भी हैं जो जैन कवियों की कृतियाँ हैं-नीलकेशि, चूड़ामणि, यशोधर कावियम्, नागकुमार कावियम् तथा उदयपान कर्थ । वामनमुनि का मेरूमंदरपुराण तथा अज्ञात कवियों के श्रीपुराण और कलिंगुत्तुप्परनि जैन ग्रंथ भी उल्लेखनीय है । छन्द शास्त्र में याप्यरूंगलम्कारिक, व्याकरणशास्त्र में नेमिनाथम् और नन्नूल, कोश क्षेत्र में दिवाकर निघण्टु, पिंगल निघण्टु और चूडामणि निघण्टु तथा प्रकीर्ण साहित्य में तिरुनूरन्तादि और तिरुक्कलम्बगम्, गणित साहित्य में ऐंचवडि तथा ज्योतिष साहित्य में जिनेन्द्र मौलि ग्रंथ तमिल भाषा के सर्वमान्य जैन ग्रंथ है ।
तेलगू जैन साहित्य :
तमिल और कन्नड़ क्षेत्र में जैनधर्म का प्रवेश उसके इतिहास के प्रारंभिक काल में ही हो गया था । तव यह स्वाभाविक है कि आन्ध्रप्रदेश में उससे पूर्व ही जैनधर्म पहुंच गया होगा । राजराज द्वितीय के समय में आंध्रप्रदेश में वैदिक आन्दोलन का प्रभाव यहाँ तक हुआ कि उस समय तक के समूचे कलात्मक और साहित्यिक क्षेत्र को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया। तेलगू साहित्य के प्राचीनतम कवि नन्नय भट्ट ने ११ वीं शती में इस तथ्य को अप्रत्यक्ष रूप में अपने महाभारत में स्वीकार किया है । श्रीशैल प्रदेश में जैनधर्म का अस्तित्व रहा है। तेलगू के समान मलयालम में भी जैन साहित्य कम मिलता है पर जो भी मिलता है वह कम महत्त्वपूर्ण नहीं।