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(महापुराण), जसहरचरिउ और गायकुमारचरिउ, धनपाल चक्कर का भविसयत्तकहा (१० वीं शती), कनकामर का करकण्डचरिउ (१० वीं शती), पाहिल का पउमसिरिचरिउ (१० वीं शती), हरिभद्र का सणसुमारपारित (१० वी शती), वीर का जम्बूसामिचरिउ (११ वीं शती), नयनादि का सुदंसणचरिउ, नरसेन का सिरिवालपरिउ, पद्मकीर्ति का पासमाहचरिउ पुसन अथवा चरित काव्य के सुन्दर निदर्शन हैं ।
अपभ्रंश के कुछ 'प्रेमाख्यानक' काव्य हैं जिनका प्रभाव हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यों पर भलीभांति देखा जा सकता है । ऐसे काव्यों में साधारण सिद्धसेन की विलासवतीकथा तथा रल्ह की जिनदत्तचउपई विशेष उल्लेखनीय हैं। 'खण्ड काव्यों' में सोमप्रभसूरि का कुमारपालप्रतिबोष, वरदत्त का वजस्वामीचरित, हरिदेव का मयणपराजयचरिउ, अब्दुल रहमान का संदेश रासक, रइधू का आत्मसंबोधन काव्य, उदयकीति की सुगन्धदशमीकथा, कनकामर का फरकण्डचरिउ आदि ग्रन्थ प्रमुख हैं । 'रास' साहित्य तो मुख्यतः जैनों का ही है। उनकी संख्या लगभग ५०० तक पहुंच जायेगी। रूपक' काव्यों में मयणपराजय चरिउ, मयणजुज्झ, सन्तोषतिलकजयमाल, मनकरभारास आदि अन्यों को प्रस्तुत किया जा सकता है।
अपभ्रंश में 'आध्यात्मिक' रचनायें भी मिलती है। योगीन्दु (६वीं शती) के परमप्पयासु और योगसार, रामसिह (हेमचन्द्र से पूर्व) का पाहुडदोहा, सुप्रभाचार्य का वैराग्यसार, महचंद का दोहापाहुड, देवसेनाका सवयधम्मदोहा आदि ग्रन्थ इसी से सम्बद्ध है । सैकड़ों ग्रन्थ तो अभी भी सम्पादक विद्वानों की ओर निहार रहे है।
___ यहाँ प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा में रचित जैन साहित्य का संक्षिप्त विवरण अथवा उल्लेख मात्र किया गया है। वस्तुतः साहित्य की हर विधामों में जैनाचार्यों का योगदान अविस्मरणीय है । वह ऐसा भी नहीं कि किसी एक काल अथवा क्षेत्र से बंधा हो। उन्होंने तो एक ओर जहाँ संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में लिखा है वहीं दूसरी ओर तमिल, तेलगू, कन्नड, हिन्दी, मराठी, गुजराती,बंगला आदि आधुनिक भारतीय भाषाजों में भी प्रारंभ से ही साहित्यसर्जना की है । इन सबका विशेष आकलन करना अभी शेष है । लगमन इन सभी भाषाओं और क्षेत्रों में जैन साहित्यकार ही मोब प्रणेता रहे है । बनेर साहित्यकारों को उनके व्यक्तित्व मोर कृतित्व से जो प्रेरणा मिली है वह भी उनक साहित्य में देखी जा सकती है।