________________
१११
दिया गया । यशोधर का चरित्र ऐसा ही क्रम है जो लेखकों को बड़ा प्रिय लगा । सोमदेव ( १० वीं शती) ने उसे मशस्तिलकचम्पू में निबद्धकर और भी रुचिकर बना दिया । दश ग्रन्थ संस्कृत साहित्य में इस कथा का आधार लेकर रचे गये हैं। अहिंसा के माहात्म्य को यहाँ अभिव्यक्ति किया गया है । लगभग बीस ग्रन्थ 'श्रीपालचरित' के मिलते हैं जिनमें सिद्धचक्र के माहात्म्य को प्रस्तुत किया गया है । भविष्यदत्तकथा, मणिपतिचरित, सुकोशलचरित, सुकुमालचरित, जिनदत्तचरित, गुणवमंचरित, चम्पकश्रेष्ठीकथा, धर्मदत्तकथा, रत्नपालकथा, नागदत्तकथा, आदि सैकड़ों ग्रन्थ मिलते हैं जिनमें इस प्रकार की कथाओं के माध्यम से धर्म और संस्कृति को उद्घाटित किया गया है ।
कुछ ऐसे भी कथा ग्रन्थ हैं जिनमें महिला वर्ग को पात्र बनाया गया है । रत्नप्रभाचार्य (१३वीं शती) की कुवलयमालाकथा, जिनरत्नसूरि (बि. सं. १३४० ) की निर्वाणलीलावतीकथा, माणिक्यसूरि ( १५ वीं शती) की महाबलमलयसुन्दरी आदि शताधिक कथाग्रंथ प्रसिद्ध हुए हैं
इसी प्रकार तिथि, पर्व, पूजा, स्तोत्र, व्रत आदि से संबद्ध सैकड़ों कथायें हैं जिन्हें जंनाचार्यों ने संस्कृत भाषा में निबद्ध किया है । विक्रमादित्य की कथा भी बहुत लोकप्रिय हुई है । कुछ धूर्ताख्यान और नीतिकथात्मक साहित्य भी मिलता है । जिनसे जीवन की सफलता के सूत्र संबलित किये जाते हैं ।
७. ललित वाङ् मय
जैनाचार्यों ने संस्कृत के ललित वाडमय को भी बहुत समृद्ध किया है । उन्होंने महाकाव्य, खण्डकाव्य, मीतिकाव्य, संदेशकाव्य, नाटक आदि अनेक विधाओं पर अपनी लेखनी चलायी है । महासेनसूरि का प्रद्युम्नचरित (१० वीं शती), वाग्भट का नेमिनिर्वाण काव्य (१० वीं शती), वीरनन्दि (११ वीं शती) का चन्द्रप्रभचरित, असग का वर्धमानचरित (१० वीं शती), हरिचन्द्र का धर्मशर्माभ्युदय ( १३ वीं शती), जिनपालगणि ( १३ वीं शती) का सनत्कुमारचरित, अभयदेवसूरि (वि. सं. १२७८ ) का जयन्तविजय, वस्तुपाल ( १३ वीं शती) का नरनारायणनंद, अर्हत्दास (१३ वीं शती) के मुनिसुव्रत काव्य, पुरुदेवचम्पू और भव्यकण्ठाभरण, जिनप्रभसूरि का श्रेणिकचरित (वि. सं. १३५६), मुनिभद्रसूरि का शांतिनाथचरित (वि. सं. १४१०), भूरामल का जयोदय महाकाव्य (वि. सं. १९९४) आदि महाकाव्य परम्परागत महाकाव्यों के लक्षणों से अलंकृत हैं। उनकी भाषा भी प्रांजल और ओजमयी है । पंनजय ( ८ वीं शती) का द्विसंधान महाकाव्य और मेघविजयमणि का सप्तसंधान महाकाव्य (वि. सं. १७६०), जयसंखरसूरि का जैनकुमार संभव