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पर विजय प्राप्त करली है । 'जिन' के अनुयायी जैन कहलाते हैं। 'अर्हत्' धर्म पूर्ण योग्यता को प्राप्त करने का धर्म है। अपनी योग्यता को प्रकटाने के लिए प्रात्मा पर लगे हुए कर्म पुद्गलो को नष्ट करना पडता है ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की साधना द्वारा। 'निर्ग्रन्थ' धर्म वह धर्म है जिसमे कषाय भावो से बधी गाँठो को खोलने-नष्ट करने के लिए आत्मा के क्षमा, मार्दव, आर्जव, त्याग, सयम, ब्रह्मचर्य जैसे गुणो को जागृत करना होता है । 'श्रमरण' धर्म वह धर्म है जिसमे अपने ही पुरुषार्थ को जागृत कर, विषम भावो को नष्ट कर, चित्त की विकृतियो को उपशात कर समता भाव मे आना होता है।
स्पष्ट है कि इन सभी साधनाओ की प्रक्रिया मे साधक का आन्तरिक पराक्रम ही मुख्य आधार है । आत्मा से परे किसी अन्य परोक्ष शक्ति की कृपा पर यह विजय-आत्मजय आधारित नही है। भगवान् महावीर की महावीरता बाहरी युद्धो की विजय पर नही, अपने आन्तरिक विकारो की विजय पर ही निर्भर है अत. यह वीरता युद्ध वीर की वीरता नही, क्षमावीर की वीरता है।
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