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वीर भाव का स्वरूप
जैन दर्शन अहिंसा प्रधान दर्शन है। अहिंसा को न मारने तक सीमित करके लोगो ने उसे निष्क्रियता और कायरता समझने की भ्रामक कल्पनाएं की हैं। तथाकथित आलोचको ने अहिंसा धर्म को पराधीनता के लिए जिम्मेदार भी ठहराया। महात्मा गाँधी ने वर्तमान युग मे अहिंसा की तेजस्विता को प्रकट कर यह मिद्ध कर दिया है कि अहिंसा वीरो का वर्म है, कायरो का नहीं । इस संदर्भ में सोचने पर सचमुच लगता है कि अहिंसा धर्म के मूल मे वीरता का भाव रहा हुआ है।
वीर भाव का स्वरूप काव्य-शास्त्रियो ने नव रसो की विवेचना करते हुए उसमें वीर रस को एक प्रमुख रस माना है। वीर रस का स्थायी भाव उत्तम प्राकृतिक उत्साह कहा गया है। किसी कार्य को सम्पन्न करने के हेतु हमारे मानस मे एक विशेष प्रकार की सत्वर क्रिया सजग रहती है, वही उत्साह है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उत्साह मे प्रयत्न और आनन्द की मिलीजुली वृत्ति को महत्त्व दिया है । उनके शब्दो मे- "साहसपूर्ण आनन्द की उमग का नाम उत्साह है।" मनोविज्ञान की दृष्टि से वीर भाव एक स्थायी भाव (Sentiment) है जो स्नेह, करुणा, धैर्य, गौरवानुभूति, तप, त्याग, रक्षा, आत्मविश्वास, आक्रोश, प्रभुता आदि सवेगो (Emotions) के सम्मिलित प्रभाव का प्रतिफल है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'वोर' शब्द मे मूल धातु 'वृ' है जिसका अर्थ है छाँटना, चयन करना, वरण करना, अर्थात् जो वरण करता है, वह वीर है। इसी अर्थ मे वर का अर्थ दूल्हा होता है
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