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निरपेक्षता जैसे सिद्धान्तो और कार्यक्रमो मे जैन-दर्शन की भावधारा न्यूनाधिक रूप से प्रेरक कारण रही है।
प्राचीन साहित्य के सरक्षक के रूप मे जैन धर्म की विशेष भूमिका रही है । जैन साधुनो ने न केवल मौलिक साहित्य की सर्जना की वरन् जीर्णशीर्ण दुर्लभ प्रथो का प्रतिलेखन कर उनकी रक्षा की और स्थानस्थान पर ज्ञान भडारो की स्थापना कर, इस अमूल्य निधि को सुरक्षित रक्खा । ग्रथो के सरक्षण, प्रतिलेखन आदि मे इनकी दृष्टि बड़ी उदार रही । जैन ग्रथो के साथ-साथ जैनेतर ग्रथो के सरक्षण एवं प्रतिलेखन का कार्य इन्होने समान आदर एव सेवा भाव से किया।
राजस्थान और गुजरात के ज्ञान भडार इस दृष्टि से राष्ट्र की अमूल्य निधि हैं। महत्त्वपूर्ण ग्रथो के प्रकाशन का कार्य भी जैन शोध संस्थानो द्वारा हुआ है। जैन पत्र-पत्रिकाओ द्वारा भी वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, और राष्ट्रीय जीवन को स्वस्थ और सदाचारयुक्त बनाने की दिशा मे बड़ी प्रेरणा और शक्ति मिलती रही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जैन धर्म की दृष्टि राष्ट्र के सर्वागीण विकास पर रही है। उसने मानव-जीवन की सफलता को ही मुख्य नही माना, उसका वल रहा उसकी सार्थकता और शुद्धता पर ।