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इस संसार मे प्राणियो के लिए चार अग परम दुर्लभ कहे गये है-मनुष्यत्व, श्रुति ( धर्म-श्रवण ) श्रद्धा और सयम मे पुरुषार्थ । देवता जीवनसाधना के पथ पर बढ नही सकते । कर्मक्षेत्र मे बढने की शक्ति तो मानव के पास ही है । इसलिए जैन धर्म मे भाग्यवाद को स्थान नही है । वहा कर्म को हो प्रधानता है । वैदिक धर्म मे जो स्थान स्तुति प्रार्थना श्रौर उपासना को किया गया है, वही स्थान जैन धर्म मे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चरित्र को मिला है ।
श्रमण धर्म के लोक सग्राहक रूप पर कुछ लोग इस कारण प्रश्नचिह्न लगाते प्रतीत होते हैं कि उसमे साधना का फल मुक्ति माना हैऐसी मुक्ति जो वैयक्तिक उत्कर्ष की चरम सीमा है । बौद्ध धर्म का निर्वारण भी वैयक्तिक है । बाद मे चलकर वौद्ध धर्म की एक शाखा महायान ने सामूहिक निर्वाण की चर्चा की । पर सोचने की बात यह है कि जैन दर्शन की वैयक्तिक मुक्ति की कल्पना सामाजिकता की विरोधिनी नही है । क्योकि श्रमण धर्म ने मुक्ति पर किसी का एकाधिकार नही माना है । जो अपने आत्म- गुणो का चरम विकास कर सकता है, वह इस परम पद को प्राप्त कर सकता है और आत्मगुणो के विकास के लिए समान अवसर दिलाने के लिए जैन धर्म हमेशा सघर्षशील रहा है ।
भगवान महावीर ने ईश्वर के रूप को एकाधिकार के क्षेत्र से बाहर निकाल कर समस्त प्राणियो की आत्मा मे उतारा । आवश्यकता इस बात की है कि प्राणी साधना पथ पर बढ सके । साधना के पथ पर जो बन्धन और बाधा थी, उसे महावीर ने तोड गिराया जिस परम पद की प्राप्ति के लिये वे साधना कर रहे थे, जिस स्थान को उन्होने अमर सुख का घर और अनन्त आनन्द का श्रावास माना, उसके द्वार सबके लिये खोल दिये । द्वार ही नही खोले, वहाँ तक पहुँचने का रास्ता भी बतलाया ।
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जैन दर्शन मे मानव शरीर श्रौर देव - शरीर के सबध मे जो चिन्तन चला है, उससे भी लोक-सग्राहक वृत्ति का पता चलता है । परम शक्ति और परमपद की प्राप्ति के लिए साधना और पुरुषार्थ की जरूरत पडती है । यह पुरुषार्थ, कर्त्तव्य की पुकार और बलिदान की भावना मानव को ही प्राप्त है, देव को नही । देव-शरीर मे वैभव-विलास को भोगने की शक्ति तो है पर नये पुण्यो संचय का पुरुषार्थ नही । इसलिए मानवजीवन की प्राप्ति को दुर्लभ बताया गया है । भगवान् महावीर ने कहा है
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