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महावीर ने विषदृष्टि सर्प चण्डकौशिक को मारा नही वरन् अपने प्राणो को खतरे मे डालकर, उसे उसके आत्मविश्वास से परिचित कराया। बस फिर क्या था? वह विष से अमृत बन गया। लोक कल्याण की यह प्रक्रिया अत्यन्त सूक्ष्म और गहरी है।
इसका लोक सग्राहक रूप मानव सम्प्रदाय तक ही सीमित नही है। ये मानव के हित के लिये अन्य प्राणियो का बलिदान करना व्यर्थ ही नही, धर्म के विरुद्ध समझते है। इनकी यह लोक-सग्रह की भावना इसीलिये जनतत्र-से-आगे बढ़कर प्राणतत्र तक पहुंची है। यदि अयतना से किसी जीव का वध हो जाता है या प्रमा वश किसी को कष्ट पहुंचता है तो ये उन पापो से दूर हटने के लिए प्रात -साय प्रतिक्रमण (प्रायश्चित) करते हैं । ये नगे पैर पैदल चलते है। गाव-गाव और नगर-नगर मे विचरण कर सामाजिक चेतना और सुषुप्त पुरुषार्थ को जागृत करते हैं। चातुर्मास के अलावा किसी भी स्थान पर नियत वास नही करते। अपने पास केवल इतनी वस्तुएँ रखते हैं जिन्हे ये अपने आप उठाकर भ्रमण कर सकें। भोजन के लिये गृहस्थो के यहा से भिक्षा लाते हैं । इसे गोचरी या मधुकरी कहते है। भिक्षा इतनी ही लेते हैं कि गहस्थ को फिर अपने लिए न बनाना पडे । दूसरे समय के लिये भोजन का सचय नहीं करते । रात्रि मे न पानी पीते है न कुछ खाते है ।
इनकी दैनिक चर्या भी बडी पवित्र होती है। दिन-रात ये स्वाध्याय मनन-चिन्तन-लेखन और प्रवचन आदि मे लगे रहते है। सामान्यतः ये प्रतिदिन ससार के प्राणियो को धर्म बोध देकर कल्याण के मार्ग पर अग्रसर करते है। इसका समूचा जीवन लोक कल्याण मे ही लगा रहता है । इस लोक-सेवा के लिए ये किसी से कुछ नही लेते।
श्रमण धर्म की यह आचारनिष्ठ दैनन्दिनचर्या इस बात का प्रबल प्रमाण है कि ये श्रमण समूचे अर्थों मे लोक-रक्षक और लोकसेवी है । यदि
आपदकाल मे अपनी मर्यादानो से तनिक भी इधर-उधर होना पड़ता है तो उसके लिये ये दण्ड लेते हैं, व्रत प्रत्याख्यान करते हैं। इतना ही नही, जव कभी अपनी साधना मे कोई वाधा आती है तो उसकी निवत्ति के लिये परीषह और उपसर्ग आदि की सेवना करते है । नही कहा जा सकता कि इससे अधिक आचरण की पवित्रता, जीवन की निर्मलता और लक्ष्य की सार्वजनीनता और किस लोक सग्राहक की होगी?