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को उद्बोधन देकर' अपनी आत्मशक्ति का ही परिचय नही दिया, वरन् तत्त्वज्ञान का वास्तविक स्वरूप भी समझाया।
सास्कृतिक समन्वय और भावनात्मक एकता
जैन धर्म ने सास्कृतिक समन्वय और एकता की भावना को भी . बलवती बनाया । यह समन्वय विचार और आचार दोनो क्षेत्रो मे देखने
को मिलता है। विचार-समन्वय के लिए अनेकान्त दर्शन की देन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । भगवान् महावीर ने इस दर्शन की मूल भावना का विश्लेपण करते हुए सासारिक प्राणियो को वोध दिया-किसी वात को, सिद्धात को एक तरफ से मत देखो, एक ही तरह उस पर विचार मत करो। तुम जो कहते हो वह सच होगा, पर दूसरे जो कहते हैं, वह भी सच हो सकता है । इसलिये सुनते हो भड़को मत, वक्ता के दृष्टिकोण से विचार करो।।
आज समार मे जो तनाव और द्वन्द्व है वह दूसरो के दृष्टिकोण को न ममझने या विपर्यय रूप से समझने के कारण हैं। अगर अनेकान्तवाद के आलोक मे सभी व्यक्ति और राष्ट्र चिन्तन करने लग जायें तो झगडे की जड ही न रहे । सस्कृति के रक्षण और सवर्धन मे जैनधर्म की यह देन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
आचार-समन्वय की दिशा मे मुनि-धर्म और गृहस्थ धर्म की व्यवस्था दी है। प्रवृत्ति और निवत्ति का सामजस्य किया गया है । ज्ञान और क्रिया का, स्वाध्याय और सामायिक का सन्तुलन इसीलिये आवश्यक माना गया है । मुनिधर्म के लिये महाव्रतो के परिपालन का विधान है । वहाँ सर्वथा-प्रकारेण तीन करण तीन योग (मन, वचन और कर्म से न करना, न कराना और न करते हुए का अनुमोदन करना) से हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह के त्याग को बात कही गई है । गृहस्थ धर्म मे अणुव्रतो की व्यवस्था दी गई है. जहाँ यथाशक्य इन आचार नियमो का पालन अभिप्रेत है। प्रतिमाघारी श्रावक वानप्रस्थाश्रमी की तरह और साधु सन्यासाश्रमी की तरह माना जा सकता है। ३ विरत्यु ते जसोकामी, जो त जीवियकारणा। वन्त इच्छमि आवेउ, सेय ते मरण भवे ॥ -उत्तराध्ययन २२/४३
हे यश कामिन् । धिक्कार है तुझे कि तू भोगी जीवन के लिए वमन किये हुए भोगो को पुन भोगने की इच्छा करता है । इससे तो तेरा मरना श्रेयस्कर है।
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