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चाहता।' सभी को अपना आयुष्य प्रिय है । सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल है । वध सभी को अप्रिय लगता है और जीना सबको प्रिय लगता है । प्राणी मात्र जीवित रहने की कामना करता है । यज्ञ के नाम पर की गई हिंसा अधर्म है । सच्चा यज्ञ आत्मा को पवित्र बनाने मे है । इसके लिये क्रोध की बलि दीजिये, मान को मारिये, माया को काटिये और लोभ का उन्मूलन कीजिये । महावीर ने प्राणी मात्र की रक्षा करने का उद्बोधन दिया। धर्म के इस अहिंसामय रूप ने सस्कृति को अत्यन्त सूक्ष्म और विस्तृत बना दिया । उसे जनरक्षा (मानव-समुदाय) तक सीमित न रख कर समस्त प्राणियो की सुरक्षा का भार भी सम्भलवा दिया। यह जनतत्र से भी आगे प्रारणतन्त्र की व्यवस्था का सुन्दर उदाहरण है।
जैन धर्म ने सास्कृतिक विषमता के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की । वर्णाश्रम व्यवस्था की विकृति का शुद्धिकरण किया। जन्म के आधार पर उच्चता और नीचता का निर्णय करने वाले ठेकेदारो को मुहतोड जवाब दिया । कर्म के आधार पर ही व्यक्तित्व की पहचान की। हरिकेशी चाण्डाल और सद्दालपुत्त कुम्भकार को भी आचरण की पवित्रता के कारण आत्म-साधको मे गौरवपूर्ण स्थान दिया।
अपमानित और अचल सम्पत्तिवत् मानी जाने वाली नारी के प्रति आत्म-सम्मान और गौरव की भावना जगाई। उसे धर्म ग्रंथो को पढने का ही अधिकार नही दिया वरन् आत्मा के चरम-विकास मोक्ष की भी अधिकारिणी माना । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इस युग मे सर्वप्रथम मोक्ष जाने वाली ऋषभदेव की माता मरुदेवी ही थी। नारी को अवला और शक्तिहीन नही समझा गया। उसकी आत्मा मे भी उतनी ही शक्ति सभाव्य मानी गई जितनो पुरुष मे 1 महावीर ने चन्दनवाला की इसी शक्ति को पहचान कर उसे 'छत्तीस हजार साध्वियों का नेतृत्व प्रदान किया । नारो को दब्बू, प्रात्मभीरु और साधना क्षेत्र मे बाधक नही माना गया। उसे साधना मे पतित पुरुष को उपदेश देकर सयम-पथ पर लाने वाली प्रेरक शक्ति के रूप में देखा गया। राजुल ने सयम से पतित रथनेमि १ सव्वे जीवा वि इच्छति जीविउ न मरिज्जिउ -दशवकालिक ६/१० २ सन्चे पाणा पियाउया सुहसाया, दुक्ख पडिकूला, अप्पियवहा ।
पियजीविणो, जीविउकामा, सव्वेसि, जीविय पिय ॥ -पाचाराग २/२/३