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५ धन (सोना-चादी के ढले हुए सिक्के अथवा घी, गुड, शक्कर आदि मूल्यवान पदार्थ) ६ धान्य (गेहू, चावल, तिल आदि) ७. द्विपद (जिसके दो पॉव हो, जैसे मनुष्य और पक्षी) ८ चौपद (जिसके चार पाव हो, जैसे हाथी, घोडे, गाय, बैल, भैस, बकरी आदि) और ६. कुप्य (वस्त्र, पात्र, औषध, बासन आदि)।
इस प्रकार की मर्यादा से व्यक्ति अनावश्वक संग्रह और शोषण की प्रवृत्ति से बचता है।
२ भगवान् महावीर का दूसरा सूत्र यह है कि विभिन्न दिशाओ ' मे आने-जाने के सम्बन्ध मे मर्यादा कर यह निश्चय किया जाये कि मैं अमुक स्थान से अमुक दिशा मे अथवा सव दिशाओ मे इतनी दूर से अधिक नही जाऊगा । इस मर्यादा या निश्चय को दिकपरिमाण व्रत कहा जाता है । इस मर्यादा से वत्तियो का सकोच होता है, मन की चचलता मिटती है और अनावश्यक लाभ या सग्रह के अवसरो पर स्वैच्छिक रोक लगती है। प्रकारान्तर से दूसरो के अधिकार-क्षेत्र मे उपनिवेश वसा कर लाभ कमाने की अथवा शोषण करने की वत्ति से बचाव होता है। आधुनिक युग मे प्रादेशिक सीमा, अन्तर्राष्ट्रीय सीमा, नाकेबदी आदि की व्यवस्था इसी व्रत के फलितार्थ हैं। क्षेत्र सीमा का अतिक्रमण करना आज भी अन्तर्राष्ट्रीय कानून की निगाह मे अपराध माना जाता है । तस्कर वृत्ति इसका उदाहरण है।
३ भगवान् महावीर ने तीसरा सूत्र यह दिया कि मर्यादित क्षेत्र मे रहे हुए पदार्थों के उपभोग-परिभोग की मर्यादा भी निश्चित की जाए। दिकपरिमाण व्रत के द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर का क्षेत्र एव वहा के पदार्थादि से तो निवत्ति हो जाती है पर यदि मर्यादित क्षेत्र के पदार्थो के उपभोग की मर्यादा निश्चित नहीं की जाती तो उससे भी अनावश्क संग्रह का अवसर बना रहता है। अत उपभोग-परिभोग परिमारण व्रत को विशेष व्यवस्था को गयी है। जो एक वार भोगा जा चुकने के पश्चात् फिर न भोगा जा सके, उस पदार्थ को भोगना, काम मे लेना, उपभोग है, जैसे भोजन, पानी आदि; और जो वस्तु बार-बार भोगी जा सके, उसे भोगना परिभोग है, जैसे वस्त्र, विस्तर आदि । उपभोग-वस्तुओ मे वे वस्तुए आती है जिनका होना शरीर रक्षा के लिए आवश्यक है। अर्थशास्त्रियो ने ऐसी वस्तुओ