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२. आवश्यकताओ का स्वैच्छिक परिसीमन
जीवन मे श्रम की प्रतिष्ठा होने पर जीवन निर्वाह की आवश्यक वस्तु को सभी पैदा करने लगे और आवश्यकतानुसार उनमे विनिमय होने लगा । धीरे-धीरे विनिमय के लाभ ने अनावश्यक उत्पादन क्षमता बढाई और तब अर्थ-लोभ ने मुद्रा को मान्यता दी । मुद्रा के प्रचलन ने समाज मे ऊँच-नीच के कई स्तर कायम कर दिये । समाज मे श्रम की अपेक्षा पूजी की प्रतिष्ठा वढी और नाना प्रकार से शोषण होने लगा । प्रौद्योगीकरण, यन्त्रवाद और यातायात तथा सचार के द्रुतगामी साधनो के विकास से उत्पादन और वितरण मे असन्तुलन पैदा हो गया । एक वर्ग ऐसा बना जिसके पास श्रावश्यकता से अधिक पू जी और वस्तु - सामग्री जमा हो गयी और दूसरा वर्ग ऐसा बना जो जीवन-निर्वाह की आवश्यक वस्तुओ से भी वचित रहा। पहला वर्ग दूसरे वर्ग के श्रम का शोषण कर उत्पादन में सक्रिय भागीदार न बनने पर भी अधिकाधिक पूजी सचित करने लगा । फलस्वरूप वर्ग सघर्ष बढा । यह सघर्ष प्रदेश विशेष तक सीमित न रहकर, अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बन गया ।
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इस समस्या को हल करने के लिए आधुनिक युग मे समाजवाद, साम्यवाद जैसी कई विचारधाराएं सामने आई । सबकी अपनी-अपनी सीमाएँ हैं । भगवान् महावीर ने आज से २५०० वर्ष पूर्व इस समस्या पर चिन्तन किया और कुछ सूत्र दिये जो आज भी हमारे लिए समाधान कारक है 1
१ उनका पहला सूत्र यह है कि श्रावश्यकता से अधिक वस्तुओ का सचय न करो । मनुष्य की इच्छाए आकाश की तरह अनन्त हैं और ज्योज्यो लाभ होता है, लोभ की प्रवृत्ति वढतो जाती है । यदि चादीसोने के कैलाश पर्वत भी व्यक्ति को प्राप्त हो जाए, तब भी उसकी इच्छा पूरी नही हो सकती, अत इच्छा का नियमन आवश्यक है । इस दृष्टि से श्रावको के लिए परिग्रह - परिमाण या इच्छा-परिमाण व्रत की व्यवस्था की गयी है । इसके अनुसार सासारिक पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाली इच्छा को सीमित किया जाता है और यह निश्चय किया जाता है कि मैं इतने पदार्थों से अधिक की इच्छा नही करूगा । शास्त्रकारो ने ऐसे पदार्थो को नौ भागो मे विभक्त किया है – १ क्षेत्र (खेत आदि भूमि ) २ वस्तु ( निवास योग्य स्थान ) ३ हिरण्य ( चादी) ४ सुवर्ण (सोना)
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