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इस सत्रास और सकट से निपटने के लिए हमे बाहर नही, भीतर की ओर देखना होगा । बाहर से हम भले ही स्वतत्र और स्वाधीन लगे पर भीतर से हम छोटे-छोटे स्वार्थों, सकीर्णताओ और अधविश्वासो से जकडे हुए हैं । शरीर से हम स्वतत्र लगते है पर हमारा मन स्वाधीन नही है । जब तक मन स्वाधीन नही होता, व्यक्ति की कर्म शक्ति सही माने मे जागृत नहीं होती और वह अपने कर्तव्य पथ पर निष्ठा पूर्वक बढ नही पाता। मन को स्वाधीनता के लिए आवश्यक है-विषयविकारो पर विजय पाना और यह तब तक सम्भव नही जब तक कि व्यक्ति आत्मोन्मुखी न बने।
आज की हमारी सारी कार्य प्रणाली का केन्द्र कर्तव्य न होकर, अधिकार बना हुआ है, शक्ति का स्रोत सेवा न होकर, सत्ता है। प्रतिष्ठा का आधार गुण न होकर, पैसा और परिग्रह है, जब तक यह व्यवस्था रहेगी तब तक हम स्वतत्रता का सही आस्वादन नही कर सकते । हमे इस व्यवस्था को बदलना होगा और इसके लिए चाहिए, तप, त्याग, बलिदान, कर्तव्य के प्रति अगाध निष्ठा और प्रात्मोन्मुखी दृष्टि ।
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