________________
परिमाण कहा । इससे आवश्यक रूप से धन कमाने की प्रवृत्ति पर अकुश लगेगा और राष्ट्रो की आर्थिक प्रतिद्वन्द्विता रुकेगी । शोपण और उपनिवेशवाद की प्रवृत्ति पर प्रतिवध लगेगा।
महावीर ने कहा-जैसे सम्पत्ति आदि परिग्रह हैं वैसे ही हठवादिता, विचारो का दुराग्रह आदि भी परिग्रह हैं । इससे व्यक्ति का दिल छोटा और दृष्टि अनुदार बनती है। इस उदारता के अभाय मे न व्यक्ति स्वय स्वतत्रता की अनुभूति कर पाता है और न दूसरो को वह स्वतंत्र वातावरण दे पाता है। अत उन्होने कहा-प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक होती है । उसे अपेक्षा से देखने पर ही, सापेक्ष दृष्टि से ही, उसका सच्चा व समग्र ज्ञान किया जा सकता है । यह सोचकर व्यक्ति को अनाग्रही होना चाहिए । उमे यह सोचना चाहिए कि वह जो कह रहा है वह सत्य है, पर दूसरे जो कहते हैं उसमे भी सत्यांश है । ऐसा समझ कर दृष्टि को निर्मल, विचारो को उदार और दिल को विशाल बनाना चाहिए। हमारे सविधान मे धर्म निरपेक्षता का जो तत्त्व समाविष्ट हुआ है, वह इसी वैचारिक मापेक्ष चिन्तन का परिणाम प्रतीत होता है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जैन दर्शन का स्वातत्र्य । वोध यद्यपि आत्मवादी चिन्तन पर आधारित है पर वह जीवन के सभी पक्षो-आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक आदि को सतेज और प्रभावी वनाता है।
स्वतत्रता के ३७ वर्षों बाद भी हम विभिन्न स्तरो पर स्वतत्रता को सही अनुभूति नहीं कर पा रहे है । इसका मूल कारण स्वतत्रता को अधिकार प्राप्ति तक ही सीमित रख कर समझना है । पर वस्तुतः स्वतत्रता मात्र अधिकार नही है। वह एक ऐसा भाव है, जो व्यक्ति को अपने सर्वाङ्गीण विकास के लिए उचित अवसर, माधना और कर्म करने की शक्ति प्रदान करता है । यह भाव अपने कर्तव्य के प्रति सजग और सक्रिय बने रहने से ही प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु दुःख इस बात का है कि आज हम अपना कर्तव्य किए बिना ही अधिकार का सुख, भोगना चाहते हैं । इसी का परिणाम है-- आज का यह सत्रास, यह सकट ।