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है । सर्वेक्षणो से पता चलता है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली और शिक्षण भूमिका मे समाज मे अनुशासनहीनता, उच्छे खलतो, तोड़-फोड, दुर्व्यसन, अपराधवृत्ति और सामाजिक विघटन को वढाँवा मिला' हैं । अत. आवश्यक है कि शिक्षा को चरित्र-निर्माण मे सीधा जोडा जाय । चारित्र का अर्थ है अशुभ कर्मों से निवृत्त होना और शुभ कर्मो मे प्रवृत्त होना। जीवन और समाज मे ऐसे कार्य नहीं करना जिससे तनाव वढता हो, अशान्ति पैदा होती हो, और ऊच-नीच का भाव आश्रय पाता हो । हिमा, झूठ, चोरी, असयम और सचयवृत्ति ऐसे कार्य हैं जिनसे हर व्यक्ति को वचना चाहिये । प्रारम्भ से ही सिद्धान्त और व्यवहार दोनो धरातलो पर ऐसा शिक्षण-प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये कि शिक्षार्थी मे दूसरो के प्रति प्रेम, मह्योग और वन्धुत्व का भाव पैदा हो, सत्य के प्रति निष्ठा जगे, आत्मानुशासन आये, जीवन मे मादगी व सरलता का भाव वढे ।
__ भावो की विशुद्धि होने से ही सभी प्राणियो के प्रति मैत्री भाव पैदा होता है, दूसरो के गणो के प्रति प्रसन्नता का उद्रेक होता है, दुखियो के प्रति करुणा उमडती है, और मुख-दुख मे, हानि-लाभ मे, निन्दा-प्रशसा मे, ममताभाव रखने का अभ्यास होता है। इस प्रकार की भावनायो का चिन्तन पीर अभ्यास व्यक्ति की वत्तियो मे परिष्कार लाता है जिससे ज्ञान, प्रना मे रूपान्तरित होने लगता है। ज्ञान का प्रज्ञा अथवा विवेक मे रूपान्तरण ही सम्यकचारित्र है । जव ज्ञान चारित्र का रूप लेता है तव कपाय भाव उपशमित होने लगते है। आत्मा विभाव से हटकर स्वभाव मे आ जाती है । ग्रात्मा के विभाव हैं--क्रोध, मान, माया, लोभ । क्रोध का क्षमा मे, मान का मार्दव मे, माया का आर्जव मे, लोभ का सतोप मे रूपान्तरित होना आत्मा का अपने स्वभाव मे आना है ।
आज की हमारी शिक्षा स्वभाव मे नही है। वह विभाव मे है। विभाव अतिक्रमण करता है, वने-बनाये नियमो को तोडता है। जीवन और ममाज मे विपत्ति और विघटन पैदा करता है । सच्ची शिक्षा का कार्य है विभाव को स्वभाव मे लाना, अतिक्रमण का प्रतिक्रमण करना । इसके लिये तप, सयम, श्रद्धा, सेवा और जागरुकता का होना आवश्यक है।
जागरुकता की भावना के अभ्यास के लिफेन्सामासिंक का विधान किया गया है। मामायिक का अर्थ है समय सम्बन्धी और समय का अर्थ है-ममता की आय, समभाव की प्राप्ति, आत्मा की तटस्थ वृत्ति, ज्ञान जव सामायिक मे होता है-अर्थात् जीवन मे सद्भाव लाता है तब वह
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