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आज की शिक्षा पद्धति मे अध्ययन-कौशल ने स्वाध्याय-कला को निर्वासित कर दिया है । फलस्वरूप हमारी प्रवृत्ति परीक्षोन्मुखी बनकर रह गयी है। भीतर उतरने की बजाय वह बाहरी सावनो का ही सहारा लेती है। उससे व्यावसायिकता का फलक तो विस्तृत हुआ है, पर श्राव्यात्मिकता की सवेदना सिकुड गयी है, मनोरजन का क्षेत्र तो वढा है पर आत्म-रमण की सम्भावना समाप्त हो गयी है, वृत्तियो को उभरने का तो अवसर मिला है, पर आत्मानुशासन का स्वाद विस्मृत हो गया है । अत आवश्यकता है कि हम स्वाध्याय की ओर प्रवृत्त हो ताकि प्रात्म-हनन और आत्म-दमन के स्थान पर आत्म-विश्वास और आत्मोल्लास वढे ।
जीवन-निर्माणकारी शिक्षा में आगे बढ़ने के लिये कौन सक्षम-अक्षम है, इसकी शास्त्रो मे वडी चर्चा आयी है । भ महावीर ने कहा है
अह पहिं ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लभई ।
थम्भा, कोहा, पमाएण, रोगेणालस्सएण य ।।' अर्थात् अहकार, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य इन पाच कारणो से शिक्षा प्राप्त नहीं होती।
योग्य शिक्षार्थी के गुणो की चर्चा करते हुए कहा गया है कि जो हास्य न करे, जो सदा इन्द्रिय व मन का दमन करे, जो मर्म प्रकाश न करे, जो चरित्र से हीन न हो, जो रसो मे प्रति लोलुप न हो, जो कपटी न हो, असत्यभापी न हो, अविनीत न हो, वही शिक्षाशील है।
विनय को शिक्षा का मूल कहा गया है। गुरु की आज्ञा न मानने वाला, गुरु के समीप न रहने वाला, उनके प्रतिकूल कार्य करने वाला तथा तत्त्वज्ञान रहित अविवेकी, अविनीत, कहा गया है । जो विद्यावान होते हुये भी अभिमानी है. अजितेन्द्रिय है, वार-वार असम्बद्ध भाषण करता है, वह अवहश्रुत है, अविनीत है। ऐसे शिक्षार्थी को शिक्षणशाला से वहिर्गमित (वाहर निकालना) करने का विधान है। शास्त्रो मे ऐसे अविनीत शिष्य को सडेकानो वाली कुतिया और सुअर से उपमित किया गया है।
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उत्तराव्ययन ११३ उत्तराध्ययन सूत्र १०३ उत्तराध्ययन सूत्र १११२ उत्तराध्ययन सूत्र ११४-५
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