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अध्ययन-कौशल का इतना विकास होने पर भी आज व्यक्ति की ज्ञान-चेतना मौलिकता और सजगता के रूप मे विशेष विकसित नही हो पा रही है । शब्द और विषय का ज्ञान तो वढ रहा है पर अर्थ-ग्रहण और उसकी नानाविध भगिमानो तक पहुंचने की क्षमता विकसित नही हो पा रही है । वाह्य इन्द्रियो की क्षमता बढने से रग, रूप, शब्द, स्पर्श, आदि की पहचान और प्रतीति मे तो विकास हुआ है, विश्व की घटनाप्रो मे रुचि बढी है, सामान्य ज्ञान का क्षितिज विस्तृत हुआ है और नित्य नवीन तथ्य जानने की जिज्ञासा जगी है, यह सब शुभ लक्षण है पर इसके समानान्तर अपने प्रात्म चैतन्य को जानने की जिज्ञासा और उसकी शक्ति को प्रकट करने की क्षमता नही बढी है । फलस्वरूप ज्ञान की आराधना आत्मा के लिये हितकारक, विश्व के लिये कल्याणक और वृत्ति-परिकारक नही बन पा रही है। ज्ञान के मथन से अमत के बजाय विष अधिक निकल रहा है और उस विप को पचाने के लिये जिस शिव-शक्ति का उदय होना चाहिये, वह नहीं हो पा रही है।
सच बात तो यह है कि केवल अध्ययन से शक्ति के क्षेत्र में संघर्ष को बल मिलता है और उससे प्राग हो पैदा होती है। जब तक स्वाध्याय की वृत्ति नही बनती तब तक ज्ञान का मथन, नवनीत-अमृत नही दे पाता। स्वाध्याय का अर्थ है-आत्मा का आत्मा द्वारा आत्मा के लिये अध्ययन, ऐसा अध्ययन जिससे आत्मा का हित हो, लोक का कल्याण हो । ऐसा स्वाध्याय अन्तर्मुख हुए विना नही हो सकता। वीतराग महापुरुषों द्वारा कथित सद्शास्त्रो के वाचन, मनन, चिन्तन, भावन और आस्वादन मे जब स्वाध्यायी एकाग्रचित्त होता है तब उसकी पाचो इन्द्रियो का सवर स्वतः हो जाता है और वह भीतर की गहराई मे अवगाहन कर निजता से जुड़ने लगता है, अपने आपको बुनने लगता है। उसकी प्रमाद की अवस्था मिट जाती है, उसकी चेतना एकाग्र हो कर भी जागरूक बनी रहती है। उसका ज्ञान केवल आँख द्वारा वाचना या बुद्धि द्वारा पृच्छना तक सीमित नहीं रहता, वह परिवर्तना और अनुप्रेक्षा द्वारा स्थिर श्रद्धा और निर्मल भाव के रूप मे परिणत हो जाता है तथा उसके आचरण मे ढलकर अपने मे ऐसे शक्तिकण समाहित कर लेता है कि वह प्राणिमात्र के लिये मगल रूप वन जाता है।
आज के युग की यह वडी दुखान्त घटना है कि ज्ञान-विज्ञान का इतना व्यापक प्रसार और अध्ययन-अध्यापन की इतनी सुविधाए प्राप्त होने पर भी व्यक्ति का मन स्वाध्याय की ओर प्रवृत्त नही हो पा रहा है।
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