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जैन-दर्शन
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ऐसा दोष करने पर क्या प्रायश्चित्त होता है इस प्रकार पूछना, पाक्षिक, मासिक आलोचनाओं के शब्दों के होते हुए अपने पहले दोष कहना, गुरु का दिया हुआ प्रायश्चित ठीक है या नहीं ऐसा किसी अन्य से पूछना, किसी प्रयोजनको लेकर अपने समान साधु से ही अपने दोष कहना और किसी दूसरे साधु के द्वारा लिये हुए प्रायश्चित्त को देखकर ऐसा ही मेरा अपराध है यही प्रायश्चित्त मैं करलूं इस प्रकार स्वयं प्रायश्चित्त कर लेना, दश दोष हैं । इसका अभिप्राय यह है कि मायाचारी रहित आलोचना करनी चाहिये ।
प्रतिक्रमण - प्रमादजन्य दोषों के लिये स्वयं पश्चात्ताप करना तथा ये दोष मिथ्या हों ऐसा चितवन करना प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमण प्रायः अचार्य ही करते हैं ।
तदुभय-आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना तदुभय है ।
विवेक - जिस साधुको जिस अन्न पान वा उपकरण में आसक्ति हो उसका त्याग करदेना विवेक है ।
व्युत्सर्ग-नियत काल तक कायोत्सर्ग करना, शरीर से ममत्व का त्याग कर देना व्युत्सर्ग है ।
तप - उपवास आदिको तप कहते हैं ।
छेद - एक दिन एक पक्ष या एक महीना आदि के लिये दीक्षा का छेद कर देना छेद है । प्रथम तो आचार्यों के वचनों में शक्ति होती है इसलिये उनके कहने से शिष्य का तपश्चरण कम हो जाता है । दूसरे थोडे दिन के दीक्षित अधिक दिन के दीक्षितको