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जैन-दर्शन में फिर उसका कोई अधिकार नहीं रहता । यदि कोई स्त्री किसी रोगादिक के कारण वार वार रजःस्वला होती हो तो फिर दानपूजा आदि धार्मिक कार्यों में उसका कोई अधिकार नहीं रहता। रजःस्वला स्त्री को किसी एकांत स्थान में मौन धारण कर बैठना चाहिये, ब्रह्मचर्य पालन करना चहिये और अन्य किसी का भी स्पर्श नहीं करना चाहिये। उस रजःस्वलाको न तो अपने घरका कोई कार्य करना चाहिये और न गाना, बजाना, नत्य करना, सीना, रांधना, हंसना, पीसना पानी छानना आदि कार्य करने चाहिये । रजःस्वला स्त्री को देव पूजा श्रादि षट् कार्यों में से कोई कर्म नहीं करना चाहिये । उसे तो केवल अपने हृदय में भगवान जिनेन्द्र देवका स्मरण करते रहना चाहिये। किसी देव वा गुरु जनों के साथ कोई किसी प्रकार की बातचीत भी नहीं करनी चाहिये । रजःस्वला स्त्री को दर्पण में अपना मुख वा रूप कभी नहीं देखनो चाहिये और न काम के वशीभूत होकर अन्य मनुष्यों को अपना रूप दिखाना चाहिये । रजःस्वला स्त्री को कामादिक के विकार सर्वथा नहीं करने चाहिये। कलह शोक भी नहीं करना चाहिये, रोना पीटना भी नहीं करना चाहिये, और न लडाई झगडा ताडन मारण आदि करना चाहिये । रजस्वला स्त्री को पत्तल वा पीतल के बर्तन में नीरस भोजन करना चाहिये, और एकांत में स्वस्थ चित्त होकर एकाशन करना चाहिये । क्षुल्लिका अर्जिका आदि दीक्षिता स्त्रियों को यदि सामर्थ्य होतो रजःस्वला होने पर तीनों दिन तक उपवास करना चाहिये । यदि इतनी