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जैन-दर्शन
ठों दिशाओं की ओर गमन करने वाली मानता हो सो भी नहीं बन सकता क्योंकि उसके लिये भी कोई प्रमाण नहीं है ।
इस प्रकार भूमि को धारण करने वाली वायु बिना किसी बाधा के सिद्ध हो जाती है क्योंकि उसके सदाकाल स्थिर रहने में कोई किसी प्रकार का विरोध नहीं आता ।
अव यहां पर कोई दूसरा वादी कहता है कि यह भूमि किसा दूसरी भूमि के आधार है क्योंकि वह भूमि है । जो जो भूमि होती है वह किसी अन्य भूमि के ही आधार पर रहती है जैसे यह प्रसिद्ध भूमि किसी मूमि के आधार पर है । इसी प्रकार वह दूसरी भूमि भी तीसरी भूमि के आधार पर है क्योंकि वह दूसरी भूमि भी भूमि है जो जो भूमि होती है वह किसी न किसी भूमि के ही आधार पर रहती है जैसे यह प्रसिद्ध भमि दूसरी भूमि के आधार है । इसी प्रकार वह तीसरी भूमि भी चौथी भूमि के आधार है क्योंकि वह भी प्रसिद्ध भूमि के समान भूमि है । इसी प्रकार ऊपर की ओर नीचे की ओर शेष दिशाओं की ओर भी यह भूमि एक दूसरे के अधार पर अन्त रहित व्यापक रूप से चली गई है। आगे इसका भी प्रतिवाद करते हैं । यह पृथ्वी नीचे की ओर वा ऊपर की ओर अपर्यन्त नहीं है अर्थात् सर्वत्र व्यापक नहीं है । क्योंकि ऊपर वा नीचे उसके आकार वा संस्थान भिन्न भिन्न हैं जिनके आकार भिन्न भिन्न होते हैं वे पर्वत के समान सीमित रूप से रहते हैं व्यापक रूप से नहीं रहते