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जैन-दर्शन
२४५ अनादि । कदाचित् उसे सादि मानते हो तो ठीक है इसमें कोई आपत्ति नहीं हैं। यदि अनादि वायु को भी सर्वकाल धारण करने वाली नहीं मानते हो तो फिर आत्मा और आकाश में भी अमूर्तत्त्व और विभुत्व (सर्वत्र रहने वाला) आदि धर्मों का विराध होगा। क्योंकि आत्मा और आकाश भी अनादि हैं और उनमें रहने वाले अमूर्तत्त्व और विभुत्व धर्म भी अनादि है। यदि अनादि स्थिर वायु भूमि को धारण नहीं कर सकती तो फिर 'अनादि आत्मा में अनादि अमूर्तत्त्व धर्म ‘भी' नहीं रह सकता तथा अनादि आकाश में अनादि व्यापकता भी नहीं रह सकता। कदाचित् यह कहो कि आत्मा में जो अमूर्तत्व धर्म हैं वह श्राधाराधेय भाव से अनादि काल से रहता है इसी प्रकार श्राकाश में जो व्यापकता है वह भी आधाराधेय भाव से अनादि काल से रहता है इसलिये इनदोनों पदार्थों में ऊपर लिखे ''दोनों धर्म सदाकाल विद्यमान रहते हैं । यदि आप लोग इस प्रकार मानते हो तो फ़िर भूमि को धारण करने वाली स्थिरः वायु । भी अनादि काल से भूमि को धरण कर रही है इसलिये उसकी सत्ता और स्थिरता सदाकाल विद्यमान रहती है । अतएव कहन। चाहिये कि अनादिकालीन स्थिर रहने वाली वायु के आधार पर रहने वाली भूमि कभी नाचे की ओर नहीं गिर सकती क्योंकि उसके गिरने का कोई प्रमाण नहीं है। ___ इस ऊपर के कथन से यह भी समझ लेना चाहिये कि कदाचित् कोई.पुरुष पृथ्वी को ऊपर की जाती हुई मानता हो वा