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जैन-दर्शन यदि पृथ्वी गोल है और वह भ्रमण करती है तो फिर उसपर जो समुद्र का जल स्थिर रहता है उसका साक्षात् विरोध दिखाई 'पडता है । जिस प्रकार किसी भ्रमण करते हुए गोले पर रक्खा हुआ गोल पत्थर कभी टिक नहीं सकता उसी प्रकार भ्रमण करती हुई पृथ्वी पर टिके हुए जल में और घूमते हुए पत्थर के गोले पर टिके हुए गोल पत्थर में कोई विशेषता नहीं है । दोनों ही समान हैं । संसार में भी देखा जाता है कि अत्यन्त भ्रमण करते हुए पत्थर के गोले पर पतनशील जलादिक पदार्थ कभी स्थिर नहीं रह सकते, कभी नहीं टिक सकते । यदि भ्रमण करते हुए गोले पर जलादिक ठहर सकते होते तो भ्रमण करती हुई पृथ्वी पर भी समुद्रादिक के ठहरने को सम्भावना हो सकती थी । कदाचित् यह कहो कि धारक वायु के निमित्त से भ्रमण करती हुई पृथ्वी पर भी जलादिक के ठहरने में कोई विरोध नहीं आता है सो भो कहना ठीक नहीं है। क्योंकि वह धारक वायु दूसरी प्रेरक वायु से (वहनेवाली वायु से) चलायमान क्यों नहीं हो सकती छर्थात् वह धारक वायु भी बहने वाली वायु से टकराकर अवश्य चलने लगेगी। जो सर्वदा चलने वाली वायु और सर्वकाल भूगोल को भ्रमण कराती हुई वायु उस भूगोल पर चारों ओर टिके हुए समुद्रादिक के जल को धारण करने वाली धारक वायु को अवश्य ही विघटन करदेगी अर्थात् उस धारक वायु को भी वह अवश्य चलादेगी। क्योंकि धारक वायु के समान उसकी प्रतिद्वन्द्वी चलने वाली वायु भी है । अतएव भ्रमण करतो हुई पृथ्वी पर जलादिक का