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________________ २१२ ] जैन-दर्शन महा दुखदाई है । इस प्रकार वे नारको अपने पापों का फल भोगा करते हैं । उनकी आयु बीच में पूर्ण नहीं होती । इसी पृथ्वी के ऊपरी भाग पर मध्यलोक है। इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। सबके मध्य में जंबूद्वीप है। जंबू द्वीप के मध्य में एक लाख योजन ऊंचा मेरु पर्वत है । जो एक हजार योजन पृथ्वी में गढ़ा है। इस मेरु के नीचे का भाग अघो लोक कहलाता है, ऊपर का भाग उध्लोक कहलाता है और मेरु की जितनी ऊँचाई है उतना मध्यलोक कहलाता है। मध्यलोक की लम्बाई चौड़ाई असंख्यात योजन हे और उसमें असंख्यात ही द्वीप समुद्र हैं। सबके मध्य में जंबूद्वीप है वह गोल है और एक लाख योजन घोडा है । उसको घेरे हुए प्रत्येक दिशा में दो लाख योजन चौढा लवण समुद्र है । उसको घेरे हुए चार लाख योजन चौटा धातकीद्वीप है । इस प्रकार दूनी दूनी चौढाई को धारण करते हुए प्रसंख्यात द्वोप समुद्र हैं अंत में स्वयंभूरमण समुद्र है । इस जंबूद्वीप में पूर्व पश्चिम लंबे छह पर्वत पडे हूँ जो जंबूद्वीप के दोनों किनारों तक चले गये है। जिससे इसमें सात क्षेत्र वन जाते हैं । जो भरत हैमवत हरि विदेह रम्यक् हेरण्यवत और ऐरावत के नाम से कहे जाते हैं । इन्हीं नामों के चौदह क्षेत्र धातकीद्वीप में हैं और चोदह ही प्राधे पुष्कर द्वीप में हैं। इस प्रकार ढाई द्वीप में पैंतीस क्षेत्र हैं। इन्हीं पैंतीस क्षेत्रों में मनुष्य
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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