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जैन-दर्शन
की अपेक्षा से वह पदार्थ प्रवक्तव्य है । इस प्रकार उन दोनों के धर्मों के साथ साथ एक प्रवक्तव्यत्व धर्म भी उसमें रहता है परन्तु वह भी सर्वथा नहीं है, कथंचित् है क्योंकि श्रवक्तव्यत्व के साथ साथ अस्तित्व और नास्तित्व धर्म भी रहते ही हैं। यदि उसमें श्रवक्तव्यत्व धर्म सर्वथा मान लिया जाय तो फिर वह किसी भी शब्द से नहीं कहा जा सकता। यदि वह प्रवक्तव्य शब्द से ही कहा जाय तो भी उसके साथ अस्तित्व धर्म तो लगा ही रहेगा। क्योंकि यह 'अवक्तव्य है अथवा श्रवक्तव्योस्ति ऐसा कहा जायगा। ऐसी अवस्था में उसके साथ 'अस्ति' वा 'है' लगा ही रहेगा और इस प्रकार वह प्रवक्तव्यत्व धर्म सर्वथा नहीं हो सकता किन्तु कथंचित् ही मानना पडेगा।
इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में अस्तित्वं नास्तित्व और अवात व्यत्व ये तीन धर्म अवश्य रहते हैं।
जिस प्रकार हम सोंठ मिरच पीपल इन तीनों दवाइयों को सात पुडियों में भिन्न भिन्न रूपसे बांध सकते हैं । एक में अकेली सोंठ, दूसरी में अकेली मिरच, तीसरी में अकेली पीपल, चौथी में सोंठ और मिरच मिली हुई, पांचवी में सोठ और पीपल मिली हुई, छटी में मिरच और पीपल मिली हुई और सातवीं में सोंठ मिरच पीपल तोनों मिली हुई। उसी प्रकार इन अस्तित्व नास्तित्व
और प्रवक्तव्यत्व धर्मों के भी सात भेद हो जाते हैं। तथा वे' सातों ही धर्म प्रत्येक पदार्थ में विशेषण रूप से रहते हैं और इस प्रकार ये-सातों धर्म प्रत्येक पदार्थ में अभिन्न रूप से रहते हैं।