________________
[१६४
जैन-दर्शन पर्वतों पर अनेक पानी के सोते हैं। उनका पानी पत्थरों से बना है। तथा पत्थरों से बना वह पानी नीचे पड़कर नदी के रूप में श्रा जाता है तथा उसका बहुतसा पानी भाफ रूपमें होकर उड जाता है । इस प्रकार रूपांतर होने से सब पुद्गलों में हलन चलन क्रिया हो जाती है।
इस प्रकार यह बात सहज रीति से समझमें आ जाती है कि यह सृष्टि अनादि अनिवन है और इसके रूपांतर का-एक अवस्था से दूसरी अवस्था उत्पन्न करने का यदि कोई कर्ता है तो वह पुद्गल ही है वा पुद्गल-विशिष्ट जीव है । शुद्ध जीव वा शरीररहित जीव किसी कार्य को नहीं कर सकता । इसीलिये एक अमृत ईश्वर किसी कार्य को नहीं कर सकता । इसलिये यह सृष्टि अनादि है।
अनेकांत वा स्याद्वाद __ यहां पर अंत शब्द का अर्थ धर्म है । संसार में जितने पदार्थ है उन सबमें अनेक धर्म रहते हैं। कोई ऐसा पदार्थ नहीं है जिसमें अनेक धर्म न रहते हों। उन अनेक धर्मों को कहना अनेकान्त है तथा यही स्याहाद का अर्थ है । स्यात् शब्द का अर्थ कथंचित् है और वाद शब्द का अर्थ कथन है। अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म को कंचित् शब्द से ही कहना पड़ता है। इस प्रकार अनेकांत और स्याद्वाद का एक ही अर्थ है।। • घी खाने से शरीर में चिकनाई अाती है, संतोप होता है और शरीर की वृद्धि तथा पुष्टता होती है। इस प्रकार घी में,
जयी खाने से शरीर
का एक ही अर्थ ही पड़ता है। इस