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जैन-दर्शन
१३६] के अनुसार हीनाधिक होता है । जो तपस्वी मुनि हैं उनके क्षयो. पशम के अनुसार अवधिज्ञान और मनः पर्यय ज्ञान भी होती है। केवल ज्ञान और केवल दर्शन केवली भगवान् अरहंत देव के ही होता है। अभिप्राय यह है कि जान समस्त जीवों के है और वह क्षयोपशम के अनुसार हीनाधिक रूपसे रहता है।
अजीवतत्व
जिसमें चेतना शक्ति न हो, ज्ञान दर्शन न हो उसको अजीब कहते हैं । अथवा जो जीव न हो वह अजीव है। अजीव के पांच भेद हैं । पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और काजद्रव्य।
पुगल~जिसमें रूप हो, रस हो, गंध हो और स्पर्श हो उसको पुद्गल कहते हैं । रूप रस गंध और स्पर्श ये चारों पुद्गल के गुण है और चारों ही अविनाभावो हैं । अविनाभावी का अर्थ साथ रहने वाले हैं। जहां एक भी गुण रहता है वहां स्थूलरूपसे वा सूक्ष्म रूपसे चारों ही रहते हैं । जैसे वायु में स्पर्श गुण मालूम होता है. परन्तु वहां पर रस गंध और रूप भी है । यदि घायु में रूप नहीं माना जायगा तो दो वायु मिलकर जो पानी बन जाता है उस पानी में भी रूप नहीं होना चाहिये । परन्तु उप दो वायु से बने हुए पानी में रूपरस गंध सब है इसलिये वायुमें भी ये तानों अवश्य मानने पड़ते हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि वायु में ये गुण सूक्ष्म रीतिसे रहते हैं और पानी में व्यक्त हो जाते हैं