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जैन-दर्शन त्याग हो जाता है इसलिये यही व्रत मर्यादा के बाहर महाव्रत के समान माना जाता है। इसकी मर्यादा किसी प्रसिद्ध देश नदी पर्वत नगर वा नियमित योजनों तक करना चाहिये । नियत की हुई मर्यादा को उल्लंघन करना, मर्यादा की वृद्धि करना वा नियत की हुई मर्यादाको भूल जाना इस व्रतके दोप हैं। श्रावकों को कभी ये दोष नहीं लगाना चाहिये अथात् न तो कभी मर्यादा का उल्लंघन करना चाहिये न मर्यादा को भूलना चाहिये और न मर्यादा को कभी वढाना चाहिये।
देशवत-किसी नियत समय तक इसी दिग्बत की मर्यादा को घटा लेना देशवत है। यथा किसी पुश्पने अपने स्थान से एक एक हजार कोस तक दिग्बत की मर्यादा नियत करली फिर वह किसी पर्व के दिन उसमें से घटाकर एक एक कोस की मर्यादा रखता है वा किसी एक पर्वके दिन अपने गांवक्री वा घर की ही मर्यादा रखता है तो वह उसका देशव्रत कहलाता है। इस व्रतको मर्यादा बहुत ही कम है और इसीलिये जितने समय तक वह इस व्रतको धारण कर अल्प मर्यादा धारण करता है उतने समय तक वह मर्यादा के वाहर समस्त स्थूल सूक्ष्म जीवों की हिंसाका त्याग कर देता है। अथवा मर्यादा नियत करने पर वह त्याग स्वयं हो जाता है । इसलिये मर्यादा के बाहर उसके महावत के समान हो जाता है । इस व्रत की मर्यादा किसी घर तक, खेत तक, किसी गांव तक, नदी तक, बाग बगीचा तक वा एक कोस, या दो, चार, कोसतक करनी चाहिये । तथा कालको मर्यादा एक दिन, दो दिन, दश दिन,