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सबसे त्याग करना
इन सबके उनचास
अनुमोदना के सात
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जैन-दर्शन वचन काय ६, मन वचन काय.७, इस प्रकार मन-वचन. काय के सात भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार कृत. कारित अनुमोदना के सात भेद हो जाते हैं । तथा इन सबके उनचास भेद हो जाते हैं। इन सबसे त्याग करना पूर्ण त्याग है और एक से लेकर अड़तालीस तक से त्याग करना एक देश त्याग है । इन उनचास भेदों को कष्टक से समझ लेना चाहिये।
मुख्य बात यह समझलेना चाहिये कि पापों के करने में मुख्य कारण परिणाम हैं, यदि हिंसा करने के परिणाम हो जाते हैं तो फिर यदि हिंसा न भी हो सके तो भी पाप लग ही जाता है । इसी प्रकार विना परिणामों के केवल प्रमाद से होने वाली हिंसा का फल अधिक रूप से नहीं मिलता। इसीलिये श्राचार्यों ने राग द्वेप का उत्पन्न होना ही हिंसा वतलाई है । उस राग द्वेप से चाहे अन्य किसी जीवको वाधा न भी पहुंचे तथापि उस राग द्वप से अपने
आत्मा का घात अवश्य हो जाता है । क्योंकि राग द्वेष से अात्मा की शुद्धता नष्ट हो जाती है और आत्मा की शुद्धता को नष्ट करना ही हिंसा है। राग द्वप जितने कम होते हैं उतना ही कम पाप लगता है और राग द्वप जितने तीव्र होते हैं उतना ही तीत्र पाप लगता है । इसका विशेष वर्णन पुरुषार्थ सिद्धपाय आदि ग्रंथों से
जान लेना चाहिय वर्णन पुरुषार्थ मिलाही तीन पाप
सत्याणुव्रत-राग द्वप पूर्वक किसी जीवको दुःख पहुँचाने की भावना से न तो स्वयं मिथ्याभाषण करना न दूसरे से कराना. सत्यागुत्रत है । सत्याणुव्रत को धारण करने वाला पुरुष अहिंसाणु
सत्यारावत ने तो स्वयं मिथ्याभो किसी जीवको दुःख