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जैन-दर्शन
१०६ ] विरोध करने में जो हिंसा वा दुष्परिणाम होते हैं वह विरोधी हिंसा कहलाती है। इन तीनों प्रकार की हिंसा का त्याग श्रावक से पूर्ण रूप से नहीं होता। श्रावक लोग इन कामों को प्रयत्न पूर्वक यत्नाचार पूर्वक करते हैं और इसीलिये इनका यथासाध्य त्याग होता है।
इस अहिंसाणुव्रत के वध, बंधन, छेद अतिभारारोपण अन्न पान निरोध ये पांच अतिचार हैं । पशुओं को मारना वा दासी दासोंको मारना (लात थप्पड से मारना बंध है। पशुओं को वांधना बंधन है । पशुओं को इस प्रकार बांधना चाहिये कि जिससे अग्नि आदिके' लगने पर वे स्वयं छूटकर भाग जाय | नाक कान छेदना छेद है । पशु वा मनुष्य जितना बोझा ले जासकते हैं उससे अधिक लाद देना अतिभारारोपण है और समय पर खाना पीना न देना अन्नपान निरोध है। ये पांच अहिंसाणुव्रत के अतिचार चा दोष हैं । अहिंसा-अणुव्रतको धारण करने वाला श्रावक इन दोपों का भी त्यागकर देता है । तथा इस प्रकार निर्दोष अहिंसाणुव्रतका पालन करता है। .
- वास्तव में देखीजाय तो पुण्य पाप सब अपने परिणामों से उत्पन्न होते हैं। यदि अपने परिणाम किसी की हिंसा करने के हो जाते हैं तो दूसरे की हिंसा हो वा न हों, हिंसा रूप परिणाम होने से उसको हिंसा जन्य पाप अवश्य लग जाता है। इसका भी कारण यह है कि राग द्वष वा हिंसा श्रादि पाप रूपं परिणाम होने से अपने यात्माका घांत तो उसी समय हो जाता है। तथा आत्मघात