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जैन-दर्शन पर उनसे प्रार्थना कर उनको पडगाहन करे तथा एपणा समिति में कहे अनुसार उनको विधिपूर्वक आहोर दे । इसके सिवाय मुनियों के लिये आवश्यकतानुसार पीछी कमण्डलु शास्त्र दे, उनके लिये वसतिका का निर्माण करावे तथा आवश्यक हो तो आहार के साथ शुद्ध प्रासुक औषधि दे । यदि आहार के लिये कोई मुनि न मिलें तो किसी भी श्रावक को बुलाकर आहोर करावे । इसके सिवाय अपनी कीर्ति के लिये औषधालय दानशाला खुलवानी चाहिये, भूखे मनुष्यों को अन्नदान देना चाहिये, अर्जिकाओं को, क्षुल्लकों को ब्रह्मचारियों को वस्त्रादिक देना चाहिये, किसी साधर्मी श्रावक को रुपये पैसे की आवश्यकता हो तो वह भी देना चाहिये । जिसमें धर्म की वृद्धि हो और किसी का दुःख दूर होता हो ऐसे धर्म के अविरुद्ध निर्दोष पदार्थ दान में देने चाहिये।
पास्तवमें देखा जाय तो इस समय में भगवान जिनेन्द्र देवकी पूजा करना और दान देना ये दोनों ही श्रावकों के मुख्य कर्त्तव्य हैं । तथा ये दोनों ही विधि पूर्वक होने चाहिये। इस प्रकार अत्यंत संक्षेप से श्रावकों के छहों आवश्यकों का निरूपण किया।
श्रावकों के व्रत
अब आगे श्रावकों के व्रत बतलाते हैं। श्रावकों के बारह व्रत हैं और वे श्रावकों के उत्तरगुण कहलाते हैं। बारह व्रतों के नाम इस प्रकार हैं:-पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । आगे संक्षेप से इनका स्वरूप बतलाते हैं।