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________________ जैन-दर्शन सम्यग्दर्शन - है और दीपक उसका कारण है तथापि वे दोनों साथ ही साथ उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान प्रकट हो जाता है । यद्यपि सम्यग्ज्ञान कार्य है, सम्यग्दर्शन उसका कारण है तथापि वे दोनों साथ साथ प्रकट होते हैं । इसका भी कारण यह है कि ज्ञान प्रात्मा का गुण है, वह तो सदा काल आत्मा के साथ रहता है। जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता तबतक वह ज्ञान मिथ्या ज्ञान कहलाता है। जब सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है तब वही मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाने लगता है। इसलिये सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य है तथा दोनों साथ साथ उत्पन्न होते हैं। यह है मानों साथ साथ इसलिये सम्यानही मिथ्याज्ञानता है। जब सा नहीं होता तक्ता यह बात पहले वता चुके हैं कि आत्मदर्शन को सम्यग्दर्शन और आत्म-ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते हैं । जब तक आत्म ज्ञान नहीं होता तब तक वह मिथ्याज्ञान ही कहलाता है। मिथ्या ज्ञान चाहे जितना ऊंचा, समस्त भौतिक पदार्थों को जानता हो तथापि वह मिथ्याज्ञान ही कहलाता है। वर्तमान में जितना विज्ञान है वह सब आत्मज्ञान से रहित है इसलिये वह मिथ्याज्ञान जिस श्रावकके सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हो जाता है वह श्रावक सबसे पहले मूलगुण धारण करता है। जिस प्रकार मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण बतलाये हैं उसी प्रकार श्रावकों के आठ मूल गुण हैं, और वे नीचे लिखे अनुसार हैं।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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