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जैन-दर्शन
६३] होते हैं तथा दोनों हाथों को मिलाकर, अंगुलियों का बंधन कर, करपात्र आहार लेते हैं । जब तक खडे होने की शक्ति है तब तक ही आहार लेते हैं। यही खडे होकर आहार लेने का अभिप्राय है ।
एकभुक्त-वे मुनिराज सूर्य उदय होने के तीन घडी बाद और सूय अस्त होने के तीन घड़ी पहले मध्याह्न में सामायिक के काल को छोडकर शेष किसी भी समय में एक ही बार आहार लेते हैं।
इस प्रकार मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण हैं। इन्हीं मूलगुणों में बारह प्रकार का तपश्चरण आजाता है और तीनों गुप्तियां आजाती हैं।
अठारह हजार शील के भेद मन वचन काय इन तीनों योगों को वश में करना, मन वचन कायकी अशुभ क्रियाओं का सर्वथा त्याग करना, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इन चारों संज्ञाओं का, आहारादिक की अभिलाषा का मर्वथा त्याग करना, पांचों इन्द्रियों को वश में करना, पृथ्वी कायिक, जलकायिक अग्निकायिक, वायुकायिक, साधारण वनस्पति, प्रत्येक वनस्पति, दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय चौ इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय इन दश प्रकार के जीवों की रक्षा करना और उत्तम क्षमा, मादव,
आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दश धर्मों का पालन करना। ये सब मुनियों के कत्र्तव्य हैं। इन्हीं को परस्पर गुणा करने से अठारह हजार भेद हो जाते हैं।